राजस्थानी भाषा का साहित्य एवं लोक साहित्य

संत साहित्य

  • संत साहित्य ने राजस्थानी साहित्य को समृद्ध बनाया है। यह साहित्य मुख्यतः पद्म में है।
  • संतों ने अपने अनुभवों को वाणी और भजनों द्वारा प्रसारित कर जनमानस को नैतिकता की सीख दी है।
  • इन्होंने आत्मज्ञान, तत्त्वदर्शन, आत्मा की अनुभूति आदि विषयों को लोकभाषा में समझाया है।
  • ऐसे संतों में गुरु गोरखनाथ, पाबूजी, मल्लीनाथजी, रामदेवजी, हड़बूजी, गोगाजी, तेजाजी आदि नाम प्रमुखता से गिनाये जा सकते हैं। इन संतों ने कोई कृतियाँ नहीं छोड़ीं, लेकिन उनकी वाणियाँ लोकजीवन का अंग बन गईं।
  • जांभोजी और जसनाथजी की वाणियों में वेदान्त के निरूपण और प्रतिपादन की झलक दिखाई देती है।
  • इनकी वाणियाँ हिन्दू-मुस्लिम एकता पर भी बल देती हैं। इनके वाणी साहित्य ने लोगों को सदमार्ग पर चलने के लिए प्रेरित किया। दादू की वाणियों की संख्या लगभग 3000 है, जिसमें वेदांत और निर्गुण ब्रह्म की चर्चा के साथ-साथ आत्मानुभूति, सिद्धांत और अनुभव का तारतम्य मिलता है।
  • दादू के शिष्य रज्जब के दो ग्रंथ वाणी और सरवंगी बड़े प्रसिद्ध है। रज्जब की वाणियों में भी प्रेम, भक्ति, ज्ञान, सदमार्ग आदि पर बल दिया गया है। दादू के शिष्य बखनाजी ने भी ढूँढ़ाडी में वाणियों की रचना की है।
  • भक्त मीरा अपने भजनों द्वारा आज भी जनमानस में जीवित हैं। उनकी भक्ति और उपासना वैष्णव धर्म से प्रभावित थी।
  • मीरा की पदावली और नरसीजी रो माहेरो सरस और प्रेम रस से आप्लावित है। इनके पदों में दृढ़ता और भक्ति रस का सामंजस्य दिखाई देता है। मीरां की काव्य रचना स्वतः एक साहित्य का आभास देती है।
  • मेवाड़ राजपरिवार से संबंधित चतुरसिंहजी ने वैराग्य धारण कर संस्कृत, हिन्दी व राजस्थानी भाषाओं में जनोपयोगी साहित्य की रचना की। मेवाड़ी भाषा में इनके द्वारा रचित योगसूत्र, भगवद्‌गीता, सांख्यकारिका, चन्द्रशेखराष्टक, हनुमानपंचक आदि की टीकाओं ने जनसामान्य को धार्मिक पथ पर चलने के लिए प्रेरित किया।
  • अलख पच्चीसी, अनुभव प्रकाश और चतुर चिंतामणि आदि रचनाओं में चतुरसिंह का गूढ़ चिंतन प्रकट होता है।
  • संत चरणदास व उनकी शिष्या दयाबाई व सहजोबाई की रचनाओं ने भी संत साहित्य को समृद्ध करने के साथ साथ जनमानस को नई राह दिखाई है।

लोक साहित्य

  • राजस्थानी लोक साहित्य की विविध विधाओं में अनेक विषयों और घटनाओं से संबंधित लोकगीत, जनकाव्य, लोकगाथाएँ, प्रेमाख्यान, लोकनाट्य, पहेलियाँ तथा कहावतें सम्मिलित हैं।
  • राजस्थान के जनजीवन में लोककथाएँ मौखिक कहानियों के रूप में प्रचलित हैं। पन्द्रहवीं शताब्दी से लिखित लोककथाएँ प्राप्त होती हैं, लेकिन उनके लेखकों के संबंध में प्रामाणिक रूप से कुछ भी नहीं कहा जा सकता है।
  • लोककथाओं की विषयवस्तु पौराणिक, धार्मिक, ऐतिहासिक, व्रत, त्योहार, नीति व्यवहार, देवी-देवताओं की स्तुति, चोर, डाकू, प्रेम, श्रृंगार, हास्य, व्यंग्य आदि से संबंधित है।
  • अनेक लोककथाओं में जंगली पशु-पक्षियों को भी मनुष्य की भाँति बोलते हुए दिखाया गया है। लोककथाएँ आदर्श मानव जीवन का चित्रण करती हैं। जीवन में क्या करणीय है और क्या नहीं, इसकी शिक्षा भी प्राप्त कर सकते हैं।
  • लोक साहित्य में कथात्मक गीतों को लोक गाथाएँ कहा जाता है। इन लोक कथाओं में हमारी ऐतिहासिक, धार्मिक कथाएँ एवं लोक देवताओं की वीर गाथाएँ सम्मिलित होती हैं।
  • कहावतें लोकजीवन को प्रतिबिम्बित करती हैं। धर्म, दर्शन, नीति, पुराण, इतिहास, ज्योतिष, सामाजिक रीति-रिवाज, कृषि, राजनीति आदि सभी अंगों पर कहावतें बनी हुई हैं।
  • कुछ कहावतें सीधी-सीधी होती हैं, लेकिन उनका लक्ष्य व व्यंग्य प्रभावकारी होता है। कहावतें तुकान्त, अतुकान्त, स्वरबद्ध और लयबद्ध भी होती हैं। कहीं-कहीं इनमें कवितांश रूप तो कहीं संवाद शैली भी मिलती है।
  • दसवीं शताब्दी से वर्तमान समय तक राजस्थानी भाषा और साहित्य का संतोषजनक विकास हुआ। मध्यकाल को राजस्थानी साहित्य का स्वर्णयुग कह सकते हैं।
  • इस साहित्य के विकास में संत, महाराजा, चारण, भाट, जैन, ब्राह्मण, वैष्णव आदि प्रत्येक वर्ग का योगदान रहा है।

राजस्थानी साहित्य के प्रकार

कक्का

  • कक्का उन रचनाओं को कहते हैं, जिनमें वर्णमाला के बावन वर्ण में से प्रत्येक वर्ण से रचना का प्रारम्भ किया जाता है।

ख्यात

  • ख्यात संस्कृत भाषा का शब्द है। इसका आशय ख्यातियुक्त, प्रख्यात, विख्यात, कीर्ति आदि है।
  • ख्याति प्राप्त प्रसिद्ध एवं लोक पुरुषों की जीवन घटनाओं का संग्रह ख्यात कहलाता है। ख्यात में विशिष्ट वंश के किसी पुरुष या पुरुषों के कार्यों और उपलब्धियों का वर्णन मिलता है।
  • ख्यातों का नामकरण वंश, राज्य या लेखक के नाम से किया जाता था। जैसे राठौड़ों री ख्यात, मारवाड़ राज्य री ख्यात, नैणसी की ख्यात आदि। ख्यातों को दो भागों में बाँटा जा सकता है- 1. संलग्न ख्यात ऐसी ख्यातों में क्रमानुसार इतिहास लिखा हुआ होता है जैसे- दयालदास की ख्यात। 2. बातसंग्रह – इनमें अलग-अलग छोटी या बड़ी बातों द्वारा इतिहास के तथ्य लिखे हुए मिलते हैं जैसे नैणसी की ख्यात ।
  • ख्यातों का लेखन मुगल बादशाह अकबर के शासनकाल से प्रारम्भ माना जाता है, जब अबुल फजल द्वारा अकबरनामा के लेखन हेतु सामग्री एकत्र की गई, तब राजपूताना की विभिन्न रियासतों को उनके राज्य तथा वंश का ऐतिहासिक विवरण भेजने के लिए बादशाह द्वारा आदेश दिया गया था। इसी संदर्भ में लगभग प्रत्येक राज्य में ख्यातें लिखी गई।

झमाल

  • झमाल राजस्थानी काव्य का मात्रिक छन्द है।
  • इसमें पहले पूरा दोहा, फिर पाँचवें चरण में दोहे के अंतिम चरण की पुनरावृत्ति की जाती है। छठे चरण में दस मात्राएँ होती हैं।
  • इस प्रकार दोहे के बाद चान्द्रायण फिर उल्लाला छन्द रखकर सिंहावलोकन रीति से पढ़ा जाता है।
  • राव इन्द्रसिंह री झमाल प्रसिद्ध है।

झूलणा

  • झुलणा राजस्थानी काव्य का मात्रिक छन्द है। इसमें 24 अक्षर के वर्णिक छन्द के अंत में यगण होता है।
  • अमरसिंह राठौड़ रा झुलणा, राजा गजसिंह-रा-झूलणा, राव सुरतांण-देवड़े-रा-झूलणा आदि प्रमुख झूलणे हैं। 

टब्बा और बालावबोध

  • मूल रचना के स्पष्टीकरण हेतु पत्र के किनारों पर टिप्पणियाँ लिखी जाती हैं उन्हें टब्बा कहते हैं।
  • विस्तृत स्पष्टीकरण को बालावबोध कहा जाता है।

दवावैत

  • गद्य-पद्य में लिखी गई तुकान्त रचनाएँ दवावैत कहलाती हैं।
  • इनमें उर्दू व फारसी शब्दावली का प्रयोग किया जाता है तथा किसी महापुरुष की प्रशंसा दोहों में की जाती है।
  • गद्य के छोटे-छोटे वाक्य खण्डों के साथ पद्य में किसी एक घटना अथवा किसी पात्र का जीवन वृत्त दवावैत में मिलता है।
  • अखमाल देवड़ा री दवावैत, महाराणा जवानसिंह री दवावैत, राजा जयसिंह री दवावैत आदि प्रमुख दवावैत ग्रंथ हैं।

दूहा

  • राजस्थान में वीर तथा दानी पुरुषों के जीवन व कार्यों से संबंधित असंख्य दोहे लिखे गए हैं।
  • इनसे उनके साहस, धैर्य, त्याग, कर्तव्यपरायणता, दानशीलता तथा ऐतिहासिक घटनाओं की जानकारी मिलती है।
  • अखैराज सोनिगरै रा दूहा, अमरसिंघ गजसिंघोत रा दूहा, करण सगतसिंघोत रा दूहा, कान्हड़दे सोनिगरै रा दूहा आदि प्रमुख हैं।

राजस्थानी भाषा का साहित्य एवं लोक साहित्य Part – 1

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