राजस्थानी भाषा का साहित्य एवं लोक साहित्य
- राजस्थानी साहित्य से अभिप्राय मेवाड़ी, मारवाड़ी, मालवी, बागड़ी, ढूँढाड़ी आदि बोलियों में रचे गए साहित्य से है।
- इन विभिन्न बोलियों का ही सामूहिक नाम राजस्थानी है। समयान्तर में इन बोलियों पर राजस्थान के पड़ोसी भू-भागों की भाषाओं विशेषकर गुजराती व ब्रज का प्रभाव भी पड़ा और उन भाषाओं में होने वाली रचनाओं को राजस्थानी की संज्ञा दी गई।
- राजस्थानी भाषा का विकास सातवीं शताब्दी से प्रारम्भ माना जाता है। कुछ विद्वान राजस्थानी का प्रारम्भ काल जैन मुनि उद्योतन सूरि के प्रसिद्ध ग्रंथ कुवलयमाला से मानते हैं जिसकी रचना 778 ई. में जालौर में की गयी मानी जाती है। प्राचीनकाल में साहित्यिक रचना का माध्यम संस्कृत था, जिस पर ब्राह्मण विद्वानों का एकाधिकार था।
- जनभाषाओं में जो साहित्य था, वह प्रायः मौखिक था। अपभ्रंश का प्रभाव बढ़ने एवं गुजराती भाषा के समृद्ध होने से राजस्थान की क्षेत्रीय बोलियों में बौद्धिक चिन्तनों, धार्मिक निष्ठाओं, नृत्य, गान आदि को काव्य के माध्यम से प्रकट किया जाने लगा।
- मुस्लिम आक्रमणों ने इन काव्य रचनाओं में वीर रस को प्रधानता दी थी परिणामस्वरूप राजस्थानी साहित्य समृद्ध होता गया।
- राजस्थानी भाषा के प्रारम्भिक काल में जैन विद्वानों ने साहित्य सृजन कर इसे समृद्ध बनाने में महत्त्वपूर्ण योगदान दिया है।
- रास साहित्य में राजस्थानी भाषा का मौलिक रूप दिखाई देता है। रास में नृत्य, गान एवं अभिनय तीनों कलाओं का समावेश मिलता है। जैन कवियों की धर्मप्रधान कृतियों ने रास साहित्य की समृद्धि में बड़ा योगदान दिया है।
- रिपु-दाररणरस जिसकी रचना 905 ई. के लगभग भीनमाल में हुई थी, प्राचीन रास रचना है।
- वज्रसेन सूरि द्वारा रचित भरतेश्वर बाहुबली घोर वीर एवं शांत रस का छोटा-सा काव्य है। यह राजस्थानी साहित्य की सबसे प्राचीन पुस्तक है।
- 1184 ई. में शालिभद्र सूरि द्वारा रचित भरतेश्वर बाहुबलि रास भी छंदों एवं राग-रागिनियों से युक्त है। यह सन् बताने वाली राजस्थान की सबसे प्राचीन पुस्तक है।
- कालान्तर में राजस्थानी साहित्य में अपभ्रंश शब्दों में कमी आती गई और लौकिक शब्दों का प्रयोग बढ़ता गया।
- तेरहवीं शताब्दी के राजस्थानी साहित्य की कृतियों में जिनवल्लभ सूरि का वृद्ध नवकार, विनयचन्द्र सूरी की रचना नेमिनाथ चतुष्पादिका, जम्बू स्वामी की रचनाएँ स्थलिभद्र रास, रेवतगिरिरास, आबूरास, चन्दनवाला रास आदि प्रमुख हैं।
- चौदहवीं शताब्दी के बाद राजस्थानी भाषा के साहित्य में देशी शब्दों के साथ-साथ अरबी-फारसी के शब्द भी प्रयुक्त किए जाने लगे। सोमसुंदर द्वारा रचित नेमिनाथ-नवरस-फाग, हीरानन्द सूरि द्वारा रचित मुनिपति राजर्षि चरित्र, बीटू सूजा द्वारा रचित जैतसी रो छन्द, पद्मनाभ द्वारा रचित कान्हड़दे प्रबंध आदि रास, चौपाई तथा वीरोल्लास युक्त काव्य के सुन्दर उदाहरण हैं।
- पृथ्वीराज की रचना वेलि क्रिसन रूकमणी री पर बृजभाषा का प्रभाव है। माणिकचन्द्र सूरि की रचना पृथ्वीचन्द्र चरित्र, शिवदास गाडण द्वारा रचित अचलदास खींची री वचनिका (1756 ई) व दवावैत साहित्य राजस्थानी भाषा की समृद्धि को प्रकट करते हैं।
- राजस्थानी भाषा का यह विपुल साहित्य लिखित और मौखिक तथा गद्य एवं पद्म दोनों ही रूपों में उपलब्ध है।
चारण साहित्य
- चारण साहित्य से तात्पर्य चारण शैली के साहित्य से है जिसकी रचना मुख्य रूप से चारणों तथा चारणेत्तर जातियाँ जैसे ब्रह्मभट्ट, भाट, ढाढ़ी, ढोली, राव, सेवक, मोतीसर आदि ने की थी।
- राजपूतों और कुछ ब्राह्मणों ने भी इस शैली की रचनाएँ की हैं। राजपूत युग की वीरता और जनजीवन की झाँकी इसी साहित्य की देन है। यह साहित्य अधिकांशतः पद्य में है और वीर रसात्मक है।
- चारण साहित्य की विषयवस्तु युद्धों और शौर्य के आख्यानों पर आधारित है। इसमें श्रृंगार रस के साथ राजपूत रमणियों के त्याग और बलिदान का बड़ा भावात्मक वर्णन किया गया है।
- बादर दाढ़ी की रचना वीरमायण चारण शैली की प्रारंभिक रचना मानी जाती है।
- गाडण शिवदास द्वारा रचित अचलदास खींची की वचनिका तुकांत गद्य और पद्य की रचना है।
- पद्मनाभ की रचना कान्हड़दे प्रबंध में राजस्थान की भौगोलिक, सामाजिक, धार्मिक व आर्थिक स्थिति का वर्णन मिलता है।
- मुहणोत नैणसी ने नैणसी की ख्यात और मारवाड़ रा परगना री विगत लिखकर सत्रहवीं शताब्दी की राजनीतिक, भौगोलिक, सामाजिक एवं आर्थिक स्थिति का वर्णन करके मध्यकालीन राजस्थान के संबंध में महत्त्वपूर्ण जानकारी उपलब्ध करवाई है।
- बाँकीदास की ख्यात राजस्थान के इतिहास का महत्त्वपूर्ण स्रोत ग्रंथ है। बूँदी के राजकवि सूर्यमल्ल मीसण की रचनाओं में वंश भास्कर एवं वीर सतसई महत्त्वपूर्ण हैं। केसरीसिंह बारहठ ने चेतावणी रा चूँगटिया नाम से तेरह सोरठे लिखकर महाराणा फतेहसिंह को 1903 ई. के दिल्ली दरबार में जाने से रोका था।
- राजस्थानी गद्य साहित्य की समृद्धि का श्रेय चारण लेखकों को है। नैणसी, बाँकीदास, दयालदास एवं सूर्यमल्ल राजस्थानी गद्य साहित्य के अमर लेखक हैं। राजपूत शासकों ने चारणों को इतिहासकार, राजकवि एवं मंत्री जैसे पदों पर नियुक्त किया था।
जैन साहित्य
- जैन साधुओं तथा जैन धर्म से प्रभावित साहित्यकारों द्वारा जैन शैली से संबंधित साहित्य की रचना की गई है।
- इस शैली का साहित्य मुख्य रूप से जैन धर्म से संबंधित है, लेकिन कहीं-कहीं जीवन संबंधी अन्य विषयों पर भी रचनाएँ मिलती हैं। यह साहित्य शांत रस से ओत-प्रोत है और रचना का स्वरूप रास, पुराण, पूजा, पाठ, स्तवन आदि विषय हैं। धर्म के अतिरिक्त ज्योतिष, वैद्यक एवं संगीत विषय पर भी साहित्य रचना हुई है।
- जैन शैली के ग्रंथों में हरिभद्रसूरि का धूर्ताख्यान एवं णेमिनाहचरिठ, उद्योतनसूरि का कुवलयमाला, सिद्धर्षि का उपमिति भव प्रपंचा, धनपाल का सच्चरियउ महावीर उत्साह, जिनेश्वर सूरि का अष्टक प्रकरण वृत्ति एवं चैतन्य वन्दक तथा हेमचन्द्र सूरि का देशीनाममाला एवं शब्दानुशासन, कवि धर्म का स्थूलिभद्र रास, कवि आसिगु का चंदनबाला रास, विजयसेन सूरि का रेवत गिरिरास, सुमति गणि का नेमिनाथ रास, माणिक्य सुन्दर सूरि का मलय सुंदरीकथा एवं पृथ्वीराज वागवलास नामक ग्रंथ उल्लेखनीय हैं।
- तेरहवीं शताब्दी में नरपति नाल्ह ने बीसलदेव रासौ की रचना की। पन्द्रहवीं और सोलहवीं शताब्दी में रास, छंद, फाग आदि की उत्कृष्ट कृतियों की रचना हुई। देवपाल का श्रेणिकराजानोरास, ऋषिवर्धन सूरि का नलदमयन्तिरास, धर्म समुद्र गणि का रात्रि भोजनरास, सहजसुंदर का परदेसीराजानोरास आदि उल्लेखनीय हैं।
- सत्रहवीं शताब्दी में कवि कुशललाभ ने लोककथानकों पर आधारित सरस काव्य माधवानल चौपाई और ढोला मारवण की चौपाई की रचना की थी।
ब्राह्मणी साहित्य
- ब्राह्मणी साहित्य से अभिप्राय ब्राह्मणों द्वारा लिखित साहित्य से न होकर ब्राह्मणी शैली से है।
- इस शैली में विविध विषयों से संबंधित साहित्य की रचना हुई है।
- बैताल पच्चीसी, सिंहासन बत्तीसी, सूआ बहोत्तरी, हितोपदेश आदि कथाएँ तथा भागवत पुराण, नासिकेत पुराण, मारकण्डेय पुराण, सूरज पुराण, रामायण, महाभारत आदि के अनुवाद जैसे धर्मशास्त्र विषयक ग्रंथों की रचना हुई।
राजस्थानी भाषा का साहित्य एवं लोक साहित्य Part – 2
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