राजस्थान के लोक वाद्य यंत्र
- राजस्थान का लोक संगीत किसी न किसी वाद्य से जुड़ा हुआ है। कई देवियों व जातियों के साथ भी विशेष वाद्य जुड़े हुए हैं।
- पाबूजी की कथा के साथ रावणहत्था, कैलादेवी के मेले में नगाड़ा बजाया जाता है। इस प्रकार राजस्थान में परिवेश, स्थिति एवं भावों के अनुरूप लोक वाद्यों का विकास हुआ है। जोधपुर में लोक वाद्यों का संग्रहालय स्थित है।
- लोक वाद्यों की बनावट व वादन शैली के आधार पर इन्हें चार भागों में विभक्त किया जाता है जो निम्नलिखित है-
तत् वाद्य यंत्र | सुषिर वाद्य यंत्र | अवनद्ध/ताल वाद्य यंत्र | घन वाद्य यंत्र |
---|---|---|---|
ऐसे वाद्य यंत्र जिनमें तार लगे होते हैं तथा तारों के माध्यम से विभिन्न प्रकार की आवाजें निकाली जाती हैं, तत् वाद्य यंत्र कहलाते हैं। | वे वाद्य यंत्र जिन्हें फूंक मारकर या हवा के द्वारा बजाया जाता है, उन्हें सुषिर वाद्य यंत्र कहा जाता है। | ऐसे वाद्य यंत्र जिनका निर्माण लकड़ी या धातु के गोलाकार या अर्द्ध गोलाकार घेरे पर पशुओं की खाल मढ़कर किया जाता है या फिर चमड़े से ढके होते हैं तथा जिनमें हाथ या लकड़ी से चोट मारने पर ध्वनि उत्पन्न होती है उन्हें अवनद्ध वाद्य कहा जाता है। | धातु से निर्मित ऐसे वाद्य यंत्र जो टकराने से या चोट मारने से ध्वनि उत्पन्न करते हैं, घन वाद्य यंत्र कहलाते हैं। |
रावणहत्था | शहनाई | मृदंग (पखावज) | मंजीरा |
इकतारा | बाँसुरी | ढोल | झांझ |
चौतारा/तंदूरा/तम्बूरा | शंख | ढोलक | थाली |
सुरमण्डल | अलगोजा | नगाड़ा | खड़ताल |
सारंगी | पूंगी | मांदल | घुंघरू |
कामायचा | नड़ | चंग/डफ | घंटा |
दोतारा | तुरही | खंजरी | लेजिम |
जंतर | बाँकिया | डेरू | झालर |
रवाज | भूगल | कुंडी | चिमटा |
भपंग | मोरचंग | पाबूजी के माटे | रमझौल |
अपंग | मशक | नौबत | भरनी |
गूजरी | सतारा | ताशा | घुरालियो |
सुरिंदा | मुरली/मुरला | डमरू | झारनी |
चिकारा | सिंगी | ढाक | कागच्छ |
दुकाको | सुरणाई | धौंसा | |
रवाब | हरनाई | दमामा/टामक | |
नागफणी | घेरा | ||
करणा | दफड़ी | ||
कानी | गड़गड़ाटी | ||
तारपी | ढीबकी | ||
टोटो |
तत् वाद्य यंत्र
रावणहत्था
- रावणहत्या भोपों का प्रमुख वाद्य है। बड़े नारियल की कटोरी पर खाल मंढकर इसे बनाया जाता है।
- इसकी डांड बाँस की होती है, जिसमें खुटियाँ लगा दी जाती हैं और उनमें नौ तार बाँध दिए जाते हैं।
- यह वायलिन की तरह गज से बजाया जाता है।
- गज घोड़े की पूँछ के बालों से निर्मित होता है।
- गज के अंतिम सिरे पर घुंघुरू बँधे होते हैं, जिनके संचालन से ध्वनि उत्पन्न होती हैं।
- पाबूजी की फड़ बाँचते समय भोपें रावणहत्था का प्रयोग करते हैं।
इकतारा
- इकतारा गोल तुम्बे में बाँस की डंडी फँसाकर बनाया जाता है।
- तुम्बे का एक हिस्सा काटकर उस पर चमड़ा मढ़ दिया जाता है।
- बाँस पर दो खुटियाँ लगाकर ऊपर नीचे दो तार बाँध दिए जाते हैं।
- इसका वादन तार पर अंगुली ऊपर-नीचे करके किया जाता है।
- इकतारा को एक हाथ से पकड़कर बजाया जाता है और दूसरे हाथ से खड़ताल बजाई जाती है।
- कालबेलिया, नाथ, साधु-संन्यासी आदि इकतारा बजाते हुए लोक संगीत की मधुरता बढ़ा देते हैं।
चौतारा/तन्दूरा
- चौतारा/तन्दूरा चार तारों वाला वाद्य यंत्र है।
- इसकी आकृति सितारा या तानपूरे के समान होती है, लेकिन इसकी कुण्डी तुम्बे की बजाय लकड़ी की बनी होती है।
- इसके तारों को मिलाने का क्रम उल्टा होता है।
- वादक इसे बायें हाथ में पकड़कर दायें हाथ की पहली अंगुली में मिजराब पहनकर बजाते हैं।
- इसमें आघात दायें से बायें किया जाता है।
- चौतारा के साथ खड़ताल, मंजीरा, चिमटा आदि वाद्य यंत्र भी बजाये जाते हैं।
- कामड़ जाति के लोग, निर्गुण भजन गाने वाले नाथपंथी और रामदेवजी के भजन गाने वाले लोग इस वाद्य का प्रयोग करते हैं।
सारंगी
- सारंगी सागवान, कैर या रोहिड़े की लकड़ी से बनाई जाती है।
- इसके तार बकरे की आँत के बने होते हैं और घोड़े की पूँछ के वालों से बनी गज से इसका वादन होता है।
- इसे बिरोजा पर घिसकर बजाने पर तारों से ध्वनि उत्पन्न होती है।
- राजस्थान में दो प्रकार की सारंगियाँ प्रचलित हैं- सिंधी सारंगी व गुजराती सारंगी।
- सिंधी सारंगी उन्नत व विकसित होती है, जिसमें तारों की संख्या अधिक होती है।
- गुजराती सारंगी में सात तार होते हैं जो स्टील के बने होते हैं, इसका प्रयोग शास्त्रीय संगीत में अधिक होता है।
- बाड़मेर-जैसलमेर क्षेत्र की लंगा जाति अपने लोक संगीत में सारंगी का अधिक प्रयोग करती है।
- मिरास, जोगी और मांगणियार कलाकार भी सारंगी के साथ गाते हैं।
- जोगी सारंगी पर गोपीचंद्र, भर्तृहरि, निहाल दे आदि के ख्याल गायन के समय सारंगी का प्रयोग करते हैं।
- सिंधी सारंगी वादक राणेरी गाँव (फलोदी जिला) के लाखा खान को 2021 में पद्मश्री से सम्मानित किया गया।
कामायचा
- कामायचा जैसलमेर और बाड़मेर क्षेत्र का लोकप्रिय वाद्य यंत्र है।
- दिखने में यह सारंगी के समान ही होता है, लेकिन बनावट में उससे थोड़ा अलग है।
- इसकी तबली सारंगी से चौड़ी व गोल होती है। तबली पर चमड़ा मढ़ा होता है।
- इसमें सत्ताइस तारों का प्रयोग किया जाता है, जो बकरी की आँतों को सुखाकर बनाये जाते हैं तथा घोड़े के बालों का भी इस हेतु प्रयोग किया जाता है। इस वाद्य में दो मोर तथा नौ मोरनियाँ होती हैं।
- कामायचा की ध्वनि में भारीपन और गूँज होती है।
- माँगणियार कलाकार कामायचा का अधिक प्रयोग करते हैं।
- साकर खान (जैसलमेर के हमीरा गाँव निवासी) प्रसिद्ध कामायचा वादक है। इन्हें 2012 में पद्मश्री से सम्मानित किया गया।
जन्तर
- जन्तर वीणा की तरह होता है। वीणा के समान इसमें दो तुम्बे होते हैं।
- इनके बीच बाँस की लम्बी नली होती है, इसमें चार तार होते हैं।
- तारों को हाथ की अंगुली और अंगूठे के आधार से आघात करके बजाया जाता है।
- इसका वादन खड़े होकर गले में लटकाकर किया जाता है। जंतर गुर्जर भोपों में अधिक प्रचलित हैं।
- देवनारायण की फड़ का वाचन करते समय भोपे जन्तर वाद्य बजाते हैं।
रवाज
- रवाज सारंगी की श्रेणी का वाद्य है। इसमें तारों की संख्या बारह होती हैं।
- चार तार तांत के बने होते हैं। इसके घट का तार सन की डोरी का बना होता है तथा आठ तार तरबों के बने होते हैं।
- रवाज वाद्य मेवाड़ क्षेत्र में राव व भाटों में अधिक प्रचलित है।
भपंग
- भपंग कटे हुए तुम्बे पर चमड़ा मढ़ कर बनाया जाता है।
- चमड़े में एक छेद करके तार को एक खूंटी से बाँध देते हैं। इसे काँख में दबाकर एक हाथ से तांत को खाँचकर या ढीला छोड़कर उस पर दूसरे हाथ से लकड़ी के टुकड़े का प्रहार करके बजाया जाता है।
- भपंग मेवात क्षेत्र का प्रसिद्ध वाद्य है। जहूर खाँ (अलवर) भपंग के अन्तर्राष्ट्रीय ख्याति प्राप्त कलाकार हैं।
अपंग
- अपंग लकड़ी, धातु, चर्मपत्र, लौकी के खोल, बकरी की खाल, बाँस आदि से बना वाद्य यंत्र है।
- मान्यता है कि इसे संत इस्माइल नाथ जोगी ने बनाया था।
- इसे वादक काँख में दबाकर एक हाथ से उस तार को खींचकर या ढीला छोड़कर दूसरे हाथ से लकड़ी के टुकड़े से प्रहार करता है। यह वाद्य उदयपुर संभाग के भीलों द्वारा बजाया जाता है।
राजस्थान के लोक वाद्य यंत्र Part – 2
राजस्थान के लोक वाद्य यंत्र Part – 3
[…] राजस्थान के लोक वाद्य यंत्र Part – 1 राजस्थान के लोक वाद्य यंत्र Part – 2 […]
[…] राजस्थान के लोक वाद्य यंत्र Part – 1 राजस्थान के लोक वाद्य यंत्र Part – 3 […]