मल्लीनाथ जी मारवाड़ के रावल सलखा और जाणीदे के ज्येष्ठ पुत्र थे।
इनका जन्म 1358 ई. में हुआ था।
मल्लीनाथजी ने अपनी पत्नी रूपादे की प्रेरणा से गुरू उगमसी भाटी से योग साधना की दीक्षा ली।
साधना से इनको सिद्ध पुरुष के रूप में ख्याति मिली थी।
मल्लीनाथ जी को भविष्य को जानने वाले तथा उन्हें देवताओं का चमत्कार प्राप्त हुआ था।
1399 ई. में इन्होंने मारवाड़ के सभी संतों को एकत्र करके एक हरिकीर्तन आयोजित करवाया था।
1399 ई. में ही इनका स्वर्गवास हुआ था।
तिलवाड़ा (बालोतरा) में लूनी नदी के तट पर इनका मुख्य मंदिर बना हुआ है।
यहाँ चैत्र कृष्ण एकादशी से चैत्र शुक्ल एकादशी तक विशाल पशु मेला आयोजित किया जाता है।
मल्लीनाथ निर्गुण और निराकार ईश्वर में विश्वास करते थे।
ईश्वर के नाम स्मरण से सांसारिक दुःखों से मुक्ति मिल सकती है।
मारवाड़ में मल्लीनाथ जी को सिद्ध पुरुष माना जाता है।
मालानी परगने का नाम इन्हों के नाम पर पड़ा है।
रामदेवजी
रामदेवजी का जन्म बाड़मेर जिले की शिव के उण्डू काश्मीर गाँव में हुआ था।
रामदेवजी तंवर वंशीय अजमालजी और मैणादे के पुत्र थे।
रामदेवजी का विवाह अमरकोट के दलेलसिंह सोढ़ा की पुत्री नेतलदे से हुआ था।
इनके गुरु का नाम बालीनाथ जी था, जिनका मंदिर जोधपुर की मसूरिया पहाड़ी पर बना हुआ है।
इनके घोड़े का नाम लीलो था। इनके झण्डे को नेजा तथा जागरण को जमा कहते है।
इनको मल्लीनाथ जी का समकालीन माना जाता है।
बाल्यावस्था में ही सातलमेर (पोकरण) गाँव के लोगों को भैरव नामक क्रूर व्यक्ति के आतंक से मुक्ति दिलाई।
इन्होंने छुआछूत और जाति पाँति का विरोध करते हुए हिन्दू-मुस्लिम समन्वय का प्रयास किया।
अपनी भतीजी को दहेज में पोकरण दे देने पर इन्होंने रामदेवरा (रूणेचा) गाँव बसाया।
रामदेवजी ने रूणेचा में 1458 ई. में भाद्रपद शुक्ल एकादशी को राम सरोवर की पाल पर जीवित समाधि ली थी।
रामदेवजी की धर्म बहिन डाली बाई ने भाद्रपद शुक्ल दशमी को रामदेवरा में जीवित समाधि ली थी।
रूणेचा में परचा बावड़ी स्थित है।
यहाँ भाद्रपद शुक्ल द्वितीया से एकादशी तक विशाल मेला लगता है।
सांप्रदायिक सद्भाव इस मेले की मुख्य विशेषता है।
मेले में पंचरंगी पताकाएँ (जिन्हें नेजा कहते हैं) लिए हुए श्रद्धालु चारों ओर दिखाई देते हैं।
रामदेवजी ने कामड़िया पंथ की स्थापना की थी।
इस पंथ के लोगों द्वारा रामदेवजी के मेले में तेरहताली नृत्य प्रस्तुत किया जाता है।
इनके मेघवाल भक्तों को रीखिया कहा जाता है।
राजस्थान और गुजरात में रामदेवजी की विशेष रूप से पूजा की जाती है।
रामदेवजी को हिन्दू विष्णु का अवतार और मुस्लिम रामशाह पीर मानते हैं।
रामदेवजी ने मूर्ति पूजा का विरोध किया था।
रामदेवजी के मंदिर में पगल्ये पूजे जाते हैं।
रामदेवजी एक अच्छे कवि थे। इनकी पुस्तक का नाम चौबीस बाणियाँ थी।
कल्ला जी
कल्ला जी मेड़ता के राव दूदा के पौत्र व अचलसिंह के पुत्र थे।
इनका जन्म 1544 ई. में मेड़ता के निकट सामियाना गाँव (नागौर) में हुआ था।
बाल्यावस्था से ही कल्ला जी अपनी कुलदेवी नागणेची की आराधना करते थे।
ये अस्त्र-शस्त्र चलाने और औषधि विज्ञान में भी निपुण थे।
चित्तौड़ पर अकबर के आक्रमण (1568 ई.) के दौरान कल्ला जी ने युद्ध में घायल जयमल को दोनों हाथों में तलवार पकड़ाकर उसे अपने कंधे पर बिठा लिया और स्वयं भी दो तलवारें लेकर युद्ध करने लगे।
इसी वीरता के कारण उनकी ख्याति चार हाथ, दो सिर वाले लोकदेवता के रूप में हुई।
इनकी पूजा नागरूप में भी की जाती है। ऐसा माना जाता है कि वे शेषनाग के अवतार थे।
डूंगरपुर जिले के सामलिया गाँव में कल्ला जी की काले पत्थर की मूर्ति स्थापित है।
इस मूर्ति पर प्रतिदिन केसर तथा अफीम चढ़ाई जाती है।
केहर, कमधण, कमधज, योगी, बाल ब्रह्मचारी, कल्याण आदि नामों से कल्ला जी के मध्य प्रदेश, मारवाड़, बाँसवाड़ा, डूंगरपुर और मेवाड़ में करीब पाँच सौ मंदिर हैं।
कल्लाजी के जागीर गाँव रुण्डेला में उनका आदि स्थानक है।
चित्तौड़ दुर्ग में भैरोपोल में कल्लाजी की समाधि बनी हुई है।
इनके मंदिरों के पुजारी सर्पदंश से पीड़ित लोगों का उपचार करते हैं।
हड़बूजी साँखला
हड़बूजी का जन्म भेंडेल (नागौर) में हुआ था।
हड़बूजी रामदेवजी के मौसेरे भाई थे।
ये जोधपुर शासक राव जोधा के समकालीन थे।
रामदेवजी की प्रेरणा से इन्होंने अस्त्र-शस्त्र त्याग दिए और गुरु बालीनाथ से दीक्षा ली।
हड़बूजी चमत्कारी महापुरुष, वचनसिद्ध और शकुनशास्त्र के ज्ञाता थे।
राव जोधा ने इन्हें बेंगटी गाँव (फलौदी जिला) भेंट किया था।
जोधपुर महाराजा अजीतसिंह ने बेंगटी गाँव में मंदिर का निर्माण करवाया था।
मंदिर में हड़बूजी की बैलगाड़ी की पूजा की जाती है।
यहाँ के पुजारी साँखला राजपूत ही होते हैं।
मेहाजी मांगलिया
मेहाजी मांगलिया मंडोर के शासक राणा रूपड़ा के समकालीन थे।
ये मेवाड़ के गुहिल वंश की मांगलिया शाखा से संबंधित थे।
मंडोर के प्रतिहारों में इनका ननिहाल था।
अपनी धर्म बहिन हेकूकी गूजरी की गायों की लुटेरों से रक्षा करते हुए वे वीरगति को प्राप्त हुए।
लोगों की सेवा एवं सहायता करने के कारण मेहाजी लोकदेवता के रूप में पूजे जाते हैं।
बापणी (फलौदी जिला) में इनका मंदिर बना हुआ है, जहाँ भाद्रपद कृष्णा अष्टमी को मेला लगता है।
इनके घोड़े का नाम किरड़ काबरा था।
इनके भोपो के वंश वृद्धि नहीं होती है।
ये संतान को गोद लेकर वंश आगे बढ़ते हैं।
मेहाजी शकुनशास्त्री थे।
झरड़ाजी
झरड़ाजी पाबूजी के बड़े भाई बूढ़ो जी के पुत्र थे।
इन्होंने अपने पिता व चाचा (पाबूजी) की मृत्यु का बदला जींदराव खीची (जायल) को मारकर लिया।
इसके बाद इन्होंने नाथ संप्रदाय अपनाया तथा रूपनाथ के रूप में भी जाने गए।
कोलूमंड (फलौदी) के पास पहाड़ी पर तथा बीकानेर के सिंभूदड़ा पर इनके प्रमुख थान (स्थान) हैं।
हिमाचल प्रदेश में इन्हें बालकनाथ के रूप में पूजा जाता है।
केसरिया कुँवर जी
केसरिया कुँवर जी गोगाजी के पुत्र थे।
केसरिया कुँवर जी को भी लोक देवता के रूप में पूजे जाते हैं।
इनके भोपा भी सर्पदंश का उपचार करता है।
वह सर्पदंश से पीड़ित व्यक्ति का जहर मुँह से चूसकर बाहर निकाल देता है।
इनके थान पर सफेद रंग का ध्वज फहराते हैं।
तल्लीनाथ जी
तल्लीनाथ जी मण्डोर के वीरमदेव के पुत्र थे।
इनका प्रारंभिक नाम गांगदेव राठौड़ था।
यह शेरगढ़ (जोधपुर ग्रामीण) के सामन्त थे।
संन्यास ग्रहण करने के बाद इन्होंने गुरु जलन्धरनाथ राव से दीक्षा ली।
पांचोटा गाँव (जालौर) में पंचमुखी पहाड़ी पर इनका मुख्य पूजा स्थल है।
जहरीले कीड़ों के काटने पर इनकी पूजा की जाती है।
इन्हें ओरण का देवता कहा जाता है।
आलम जी
आलम जी जैतमालोत राठौड़ थे।
आलम जी का मुख्य मंदिर कोठाला (धोरीमना, बाड़मेर) में बना हुआ है।
इन्हें अश्वरक्षक देवता कहा जाता है।
देव बाबा
देव बाबा का मुख्य मंदिर नंगला जहाज (भरतपुर) में बना हुआ है।
यहाँ पर भाद्रपद शुक्ल पंचमी तथा चैत्र शुक्ल पंचमी को विशाल मेला लगता है।
इन्हें खुश करने के लिए सात ग्वालो को भोजन करवाना पड़ता है।
देव बाबा पशु चिकित्सक थे।
हरिराम जी
हरिराम जी का जन्म नागौर जिले के झोरड़ा में हुआ।
शोरडा गाँव में इनको मुख्यं मंदिर बना हुआ है।
हरिराम जी सर्प रक्षक देवता थे। सर्प दंश का इलाज करते थे।
मंदिर में साँप की बांबी एवं बाबा के प्रतीक के रूप में चरण कमल हैं।
मंदिर में साँप की बांबी की पूजा की जाती हैं।
भाद्रपद शुक्ल पंचमी को इनका मेला लगता है।
बिग्गाजी
गौ-सेवक एवं गौ-रक्षक बिग्गाजी का जन्म रीड़ी (बीकानेर) में हुआ था।
इनके पिता का नाम राव महन तथा माता का नाम सुल्तानी था।
बिग्गाजी को गायों से विशेष लगाव था, इन्होंने अपना संपूर्ण जीवन गायों की सेवा में लगा दिया।
गायों की रक्षार्थ ही लुटेरों से संघर्ष करते हुए वे वीर गति को प्राप्त हुए।
जाखड़ गोत्र के जाट इन्हें अपना कुलदेवता मानते हैं।
बिग्गाजी का मंदिर उनके जन्म स्थल रीड़ी गाँव में बना हुआ है।
खेतलाजी
खेतलाजी का मुख्य मंदिर सोनाणा (पाली) में बना हुआ।
चैत्र शुक्ल एकम को इनका मेला लगता है।
यहाँ पर हकलाने वाले बच्चों का इलाज किया जाता है।
झुन्झार जी
झुन्झार जी का जन्म इमलोहा (सीकर) में हुआ था।
गाँव में गायों की रक्षा करते हुए स्यालोदड़ा (सीकर) में वीर गति को प्राप्त हुए।
स्यालोदड़ा मंदिर में दुल्हा-दुल्हन तथा इनके तीन भाइयों की मूर्तियाँ बनी हुई है।
यहाँ चैत्र माह के शुक्ल नवमी को मेला लगता है।
भूरिया बाबा (गौतमेश्वर)
भूरिया बाबा मीणा जाति के ईष्ट देवता है।
मीणा जाति के लोग इनकी झूठी कसम नहीं खाते हैं।
इनका स्थान गौतमेश्वर महादेव मंदिर गोडवाड़ (सिरोही) के पर्वतों में स्थित है।