ऐसे महापुरुषों जो मानव रूप में जन्म लेकर अपने असाधारण व लोकोपकारी कार्यों के कारण दैविक अंश के प्रतीक के रूप में स्थानीय जनता द्वारा स्वीकार किए गए, उन्हें लोक देवता कहा गया है।
राजस्थान के पाँच पीरों में पाबूजी, हरभूजी, रामदेवजी, गोगाजी, मेहाजी मांगलिया शामिल है।
पाबू, हरभू, रामदे, मांगलिया मेहा।
पाँचू पीर पधारज्यो गोगादे जेहा।।
गोगाजी
गोगाजी का का जन्म चूरू जिले के ददरेवा में हुआ था।
इनके पिता का नाम जेवर और माता का नाम बाछल था। इनकी पत्नी मेनल इनके साथ सती हुई।
इन्हें महमूद गजनवी व गुरु गोरखनाथ का समकालीन माना जाता है।
मुसलमानों के विरुद्ध युद्ध में गोगाजी की वीरता का वर्णन कवि मेह ने ‘गोगाजी का रसावला’ में किया है।
इनकी स्मृति में प्रतिवर्ष गोगामेड़ी (हनुमानगढ़) में भाद्रपद कृष्णा नवमी को विशाल मेला लगता है।
सपों के देवता के रूप में खेजड़ी वृक्ष के नीचे इनकी पूजा की जाती है।
ददरेवा में गोगाजी का मंदिर है। गोगाजी के मंदिर को मेड़ी कहा जाता है।
गोगाजी के जन्म स्थान ददरेवा को शीर्षमेड़ी तथा समाधि स्थल गोगामेड़ी को धुरमेड़ी कहा जाता है।
इनका मंदिर मकबरा शैली में बना हुआ है। इस मंदिर में बिस्मिल्लाह उत्कीर्णित है।
महमूद गजनवी ने गोगाजी को जाहिर पीर कहा है। हिन्दू और मुस्लिम दोनों गोगाजी की पूजा करते हैं।
खिलेरियों की ढाणी (सांचौर) में गोगाजी की ओल्डी बनी हुई है।
हिन्दू उन्हें सपों का अवतार मानता है तो मुस्लिम गोगापीर के रूप में पूजते है।
हिन्दू-मुस्लिम संप्रदायों को निकट लाने में गोगाजी के प्रतीक रूप का भी योगदान है।
इन्हें राजस्थान के अतिरिक्त गुजरात, हरियाणा, पंजाब, उत्तर प्रदेश, हिमाचल प्रदेश में भी लोकदेवता के रूप में पूजा जाता है।
गोगाजी अपने मौसेरे भाई सेरे भाई अरजन और और सरजन के खिलाफ गायों की रक्षा करते हएु शहीद हो गए थे।
तेजाजी
तेजाजी का जन्म नागौर जिले के खरनाल में 1073 ई. में हुआ था।
इनके पिता का नाम ताहड़जी व माता का नाम रामकुँवरी था।
तेजाजी जाट वंशीय थे।
इनका विवाह पनेर गाँव (अजमेर) के रायमलजी की पुत्री पैमल दे के साथ हुआ था।
इनकी पत्नी पैमल इनके साथ सती हुई थी।
इनकी घोड़ी का नाम लीलण था।
तेजाजी अपनी पत्नी पैमल को लेने पनेर गए, तब मेरो ने लाछा गूजरी की गायों को चुरा ले गए।
लाछा गूजरी की प्रार्थना पर तेजाजी ने मेरो का पीछा किया और गायों को छुड़ाने में सफलता प्राप्त की।
पनेर से लौटते हुए सुरसुरा (किशनगढ़, अजमेर) में सौंप के काटने से भाद्रपद शुक्ल दशमी को इनकी मृत्यु हो गई।
तेजाजी के इस शौर्यपूर्ण कृत्य, वचन पालन और गौरक्षा ने उन्हें देवत्व प्रदान किया।
तेजाजी का मुख्य स्थल परबतसर (डीडवाना-कुचामन) में स्थित है।
यहाँ प्रतिवर्ष भाद्रपद शुक्ला दशमी को पशु मेला लगता है।
राजस्थान के जाट तेजाजी के प्रति अत्यधिक श्रद्धा रखते हैं।
इनके मुख्य थान सुरसुरा, व्यावर, सैंदरिया और भाँवता में हैं।
गोगाजी के समान तेजाजी को भी साँपों का देवता माना जाता है।
साँप डसे व्यक्ति के दाहिने पैर में तेजाजी की तांत (डोरी) बाँध दी जाय, तो उसे जहर नहीं चढ़ता है।
तेजाजी की मूर्ति तलवारधारी अश्वारोही योद्धा के रूप में बनाई जाती है।
इनको काला-बाला का देवता तथा कृषि कार्यों के उपासक देवता के रूप में भी पूजा जाता है।
खरनाल (जन्म), पनेर (ससुराल) और सुरसुरा (मृत्युस्थल) में इनके मंदिर बने हुए हैं।
वर्ष 2010 में तेजाजी पर डाक टिकट जारी किया गया था।
बंशीधर शर्मा द्वारा रचित तेजाजी रा व्यावहला व मेहता लञ्जाराम शर्मा द्वारा रचित झुंझार तेजा में तेजाजी का वर्णन किया गया।
तेजाजी की बहन बुंगरी माता का मंदिर भी खरनाल में बना हुआ है।
देवनारायण जी
देवनारायण जी का जन्म 1243 ई. में आसींद (भीलवाड़ा) में बगड़ावत गुर्जर परिवार में हुआ था।
इनके पिता का नाम सवाई भोज और तथा माता का नाम सेदू गूजरी था।
इनका विवाह धार (मध्य प्रदेश) में जयसिंह देव परमार की पुत्री पीपलदे से हुआ।
इनके जन्म से पूर्व ही इनके पिता भिनाय के शासक के साथ संघर्ष में अपने तेईस भाइयों सहित मारे गए थे।
भिनाय शासक से बचाने के लिए सेदू गूजरी इन्हें अपने ननिहाल मालवा ले गई।
बड़े होने पर देवनारायण जी ने भिनाय ठाकुर को मार डाला।
देवनारायण गुर्जर जाति में अत्यधिक लोकप्रिय हैं।
गुर्जर भोपो द्वारा जंतर वाद्य यंत्र के साथ देवनारायण की फड़ का गायन किया जाता है।
देवनारायण जी की फड़ सबसे लंबी फड़ है।
इस फड़ पर डाक टिकट भी जारी किया गया है।
इनके मंदिर में नीम के पत्ते चढ़ाए जाते हैं।
इनके मंदिर में ईटों की पूजा (मूर्ति नहीं होती है) की जाती है।
देवनारायण का प्रमुख पूज्य स्थल आसींद (भीलवाड़ा) में है। यहाँ भाद्रपद शुक्ल षष्ठी व माघ शुक्ल सप्तमी को मेला लगता है।
यहाँ पर देवनारायण व सवाई भोज के मंदिर हैं।
देवधाम जोधपुरिया (टोंक) के देवनारायण मंदिर में बगड़ावतों की शौर्य गाथाओं के चित्र बने हुए हैं। यहाँ भी प्रतिवर्ष माघ शुक्ल सप्तमी को देवनारायण का मेला लगता है।
इन्हें गौरक्षक लोक देवता के रूप में भी स्मरण किया जाता है।
देवनारायण जी को औषधि का देवता कहा जाता है।
देवनारायण जी को विष्णु का अवतार माना जाता है।
देवमाली (ब्यावर) तथा देवडूंगरी मालासेरी (भीलवाड़ा) में भी इनके मंदिर बने हुए।
पाबूजी राठौड़
पाबूजी का जन्म 1239 ई. में कोलूमंड (फलौदी) में हुआ था।
पाबूजी के पिता का नाम धांधल जी राठौड़ तथा माता का नाम कमला दे था।
पाबूजी का विवाह अमरकोट के सूरजमल सोढ़ा की पुत्री फूलम दे (सुप्यार दे) से हुआ था।
चाँदा-डामा (भील भाई) और हरमल पाबूजी के सहयोगी थे।
पाबूजी जब विवाह करने गए, उसी समय देवल चारण की गायों को जींदराव खींची ने घेर लिया था।
देवल चारणी ने पाबूजी से उनकी गायों को छुड़ाने की प्रार्थना की।
पाबूजी ने अपने साथियों सहित खाचियों का पीछा किया और जींदराव से युद्ध करते हुए गायों की रक्षार्थ 1276 ई. में वीरगति को प्राप्त हुए। इनकी पत्नी इनके साथ सती हो गई थी।
वीरता, प्रतिज्ञापालन, शरणागत वत्सलता एवं गौ-रक्षा के कारण पाबूजी को देवता के रूप में पूजा जाता है।
पाबूजी का मुख्य तीर्थस्थल कोलू (फलौदी) में है जहाँ प्रतिवर्ष इनकी स्मृति में मेला लगता है।
पाबूजी का प्रतीक चिन्ह भाला लिए अश्वारोही के रूप में है।
पाबूजी को लक्ष्मण का अवतार माना जाता है। राजस्थान में ऊँट लाने का श्रेय पाबूजी को ही दिया जाता है।
ऊँट के बीमार होने पर पाबूजी की पूजा की जाती है, इसलिए इन्हें ऊँटों का देवता भी कहा जाता है। (राईका/रेबारी जाति)
पाबूजी ने गुजरात के थोरी जाति के सात भाइयों को आश्रय प्रदान किया था।
पाबूजी के प्रमुख अनुयायी थोरी हैं।
पाबूजी री फड़ सबसे लोकप्रिय फड़ है।
भील जाति के भोपों द्वारा फड़ बाँचते समय रावणहत्था वाद्य बजाया जाता है।
पाबूजी रा पवाड़ा (गीत) माट वाद्य यंत्र द्वारा गाये जाते है।
पाबूजी से संबंधित रचना और रचनाकार निम्नलिखित हैं-
पाबू प्रकास आशिया मोडजी
पाबूजी के सोरठे रामनाथ
पाबूजी रा दूहा लधराज
पाबूजी रा छंद मेहाजी चारण
पाबूजी रा रूपक मोतीसर बगतावर
पाबूजी रा गीत बांकीदास आसिया
मामा देव
मामा देव राजस्थान के ऐसे लोक देवता हैं, जिनकी मिट्टी-पत्थर की मूर्तियाँ नहीं बनती बल्कि लकड़ी का एक विशिष्ट व कलात्मक तोरण होता है, जो गाँव के बाहर मुख्य सड़क पर प्रतिष्ठापित किया जाता है।
मामा देव बरसात के देवता माने जाते हैं।
इनको खुश करने के लिए भैंसे की बलि दी जाती है।
वीर फत्ताजी
वीर फत्ताजी का जन्म साथू गाँव (जालौर) में हुआ था।
लुटेरों से गाँव की रक्षा करते हुए इन्होंने प्राण उत्सर्ग कर दिए।
साथू गाँव (जालौर) में इनका विशाल मंदिर है।
यहाँ भाद्रपद शुक्ला नवमी को मेला लगता है।
डूंगजी-जवाहर जी
बाठोठ-पाटोदा (सीकर) गाँव के सामन्त थे।
कालान्तर में ये अमीरों का धन लूटकर गरीबों में बाँट दिया करते थे।
इनके प्रमुख सहयोगी लोटूजी निठारवाल, करणा जी मीणा, बालूजी नाई, सांखुजी लोहार थे।
इन्होंने अंग्रेजों की आगरा की जेल तथा नसीराबाद छावनी लूट ली थी।
इन्हें भी राजस्थान में लोक देवता के रूप में पूजा जाता है।