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राजस्थान के संत
संत मीराबाई
- मेड़ता के राठौड़ शासक राव रत्नसिंह की पुत्री मीराबाई का जन्म 1498 ई. में कुड़की (जैतारण, ब्यावर) में हुआ था।
- मीरा के पिता का नाम रतनसिंह मेड़ता था।
- मीराबाई के जन्म के तीन वर्ष बाद इनकी माता कसूब कंवर का देहान्त हो गया।
- मीरा का पालन-पोषण मेड़ता में इनके दादा राव दूदा ने किया था।
- 1516 ई. में मीरा का विवाह मेवाड़ के महाराणा सांगा के ज्येष्ठ पुत्र भोजराज के साथ हुआ था।
- शादी के कुछ समय बाद ही भोजराज का निधन हो गया।
- मीराबाई के गुरू रैदास थे।
- सगुण भक्ति संत मीरा भगवान श्रीकृष्ण को अपना पति मानकर पूजा करती थी।
- उन्होंने ज्ञान से अधिक भावना व श्रद्धा को महत्त्व दिया था।
- मीरा के अनुसार गायन, नृत्य और कृष्ण स्मरण ही भक्ति का सरल मार्ग है।
- मीराबाई अंतिम समय में गुजरात के द्वारिका स्थित रणछोड़ मंदिर चली गई। मीराबाई 1547 ई. में भगवान श्रीकृष्ण की मूर्ति में विलिन हो गई।
- मीराबाई को राजस्थान की राधा कहा जाता है।
- इनका मंदिर चित्तौड़गढ़ किले में बना हुआ है।
- महात्मा गाँधी के अनुसार मीराबाई अन्याय के खिलाफ संघर्ष करने वाली सत्याग्रही महिला थी।
- राजस्थानी, ब्रज, गुजराती और पंजाबी भाषा में इनके द्वारा रचित पद मिलते हैं।
- सत्याभामा जी नू रूसणो, गीत गोविन्द की टीका, राग गोविन्द, मीरां री गरीबी, रुकमणी मंगल आदि मीरां द्वारा रचित प्रमुख रचनाएँ हैं।
- रतना खाती द्वारा नरसी जी रो मायरो रचित है।
संत रानाबाई
- कृष्ण भक्त रानाबाई का जन्म हरनावां गाँव (परबतसर, डीडवाना-कूचामन) में 1504 ई. में किसान जाट परिवार में हुआ था।
- रानाबाई जालिमसिंह के पुत्र रामगोपाल की पुत्री थी।
- इनकी माता का नाम गंगाबाई था।
- रानाबाई मीरा की समकालीन थी।
- रानाबाई ने गुरू संत चतुरदासजी (उपनाम खोजीजी) से दीक्षा ली थी।
- सलेमाबाद के निम्बार्क संत परशुराम देवाचार्य के सान्निध्य में रानाबाई ने मथुरा, वृंदावन आदि स्थानों की तीर्थ यात्राएँ की।
- 1570 ई. में फाल्गुन शुक्ला त्रयोदशी (संवत् 1627) को रानाबाई ने हरनावां में जीवित समाधि ली थी।
- इनके भाई भुवानजी ने यहाँ इनकी कच्ची समाधि (चबूतरा) बनवा दी थी।
- इनके समाधि स्थल पर प्रतिवर्ष भाद्रपद्र शुक्ल त्रयोदशी को मेला लगता है।
- कुँवारी होने के कारण रानाबाई की समाधि के परिक्रमा नहीं लगाई जाती है।
- भाद्रपद शुक्ल त्रयोदशी को रानाबाई को आत्मज्ञान प्राप्त हुआ था।
- माघ शुक्ल त्रयोदशी को गुरू प्राप्ति व फाल्गुन शुक्ल त्रयोदशी को समाधि ली।
- अतः प्रत्येक माह के शुक्ल पक्ष की त्रयोदशी को समाधि स्थल पर मेला लगता है।
- इन्हें राजस्थान की दूसरी मीरा कहा जाता है।
संत चरणदास
- 1703 ई. में संत चरणदास का जन्म डेहरा गाँव (अलवर) में हुआ था।
- इनके पिता का नाम मुरलीधर (दूसर बनिया जाति) एवं माता का नाम कुंजोबाई था।
- इनके बचपन का नाम रणजीत था।
- गुरू शुकदेव मुनि ने इन्हें दीक्षा दी थी और इनका नाम चरणदास रखा।
- चरणदास जी ने अपने अनुयायियों को मेवाती भाषा मे 42 उपदेश दिए थे।
- इस सम्प्रदाय में अनुयायी स्वयं को भगवान श्रीकृष्ण की सखी मानकर पूजा करते है।
- इनके अनुयायी पीले वस्त्र धारण करते है।
- चरणदास जी द्वारा रचित पुस्तकें ब्रह्मचरित्र व ज्ञान स्वरोदय है।
- 1782 ई. में इनके जयपुर आगमन पर सवाई प्रतापसिंह ने इन्हें कोलीवाड़ा ग्राम दान में दिया था।
- 1782 ई. में दिल्ली में इनकी मृत्यु हुई, जहाँ इनकी समाधि पर बसंत पंचमी को मेला लगता है।
- इनके प्रमुख 52 शिष्य थे।
- दयाबाई (पुस्तकें- दयाबोध, विनयमलिका) व सहजीबाई (पुस्तक सहजप्रकाश) प्रमुख शिष्याएँ थी।
- चरणदासी संप्रदाय में निर्गुण निराकार ब्रह्म की सखी भाव से सगुण भक्ति की जाती है।
- इसमें निर्गुण व सगुण भक्ति भाव का मिश्रण देखने को मिलता है।
- इस संप्रदाय में श्रीकृष्ण लीलाओं का विशेष महत्त्व है।
- मुख्यतः मेवात और दिल्ली में इस संप्रदाय का प्रभाव है।
- चरणदासी संप्रदाय की प्रधान पीठ दिल्ली में है।
- चरणदासजी ने नादिरशाह के दिल्ली पर आक्रमण की भविष्यवाणी की थी।
संत लालदास
- लालदासी संप्रदाय के प्रवर्तक लालदास का जन्म 1540 ई. में धौलीदूब (अलवर) गाँव में हुआ था।
- इनके पिता का नाम चाँदमल, माता का नाम समदा और पत्नी का नाम मोगरी था।
- यह मेव जाति के लकड़हारे थे।
- वह मुगल सम्राट अकबर और दादू के समकालीन थे।
- इन्हें तिजारा के मुस्लिम फकीर गदन चिश्ती ने दीक्षा दी ली थी।
- मुस्लिम होते हुए भी वह मुस्लिम धार्मिक पद्धतियों को नहीं मानते थे।
- संत लालदास ने हिन्दू और मुस्लिम दोनों धर्मों की अच्छाइयों को अपनाकर लोगों को उपदेश दिए थे।
- मेवात क्षेत्र में अधिक प्रभाव के कारण लालदासजी ने अपने उपदेश मेवाती भाषा में दिए थे।
- इन्होंने अपने जीवन के अंतिम दिन नंगला जहाज गाँव (भरतपुर) में बिताए, जो इनका मुख्य स्थल है।
- रामगढ़ के पास शेरपुर गाँव में इन्हें समाधि दी गई।
- मेव मुसलमान लालदासजी को पीर मानते हैं।
- इनके समाधि स्थल पर आश्विन मास की एकादशी व माघ पूर्णिमा को मेला लगता है।
- लालदासी संप्रदाय के अनुयायी मेव जाति की कन्या के साथ ही विवाह करते हैं।
- इस संप्रदाय की दीक्षा लेने वाला व्यक्ति निरंकारी होना चाहिए, उसे सम्पत्ति से मोह नहीं होना चाहिए।
- लालदास की चेतावनियाँ इनका मुख्य काव्य ग्रंथ है।
- लालदासी संप्रदाय में दीक्षा लेने वाले को गधे पर काला मुँह करके उल्टा बिठाया जाता है।
संत हरिदास
- निरंजनी संप्रदाय के संस्थापक संत हरिदास का जन्म डीडवाना के कापड़ोद गाँव (डीडवाना-कूचामन) में 1455 ई. में हुआ था।
- इनका मुख्य केन्द्र गाढ़ा (डीडवाना) में है।
- लूटमार करना इनका पेशा था।
- इनका मूल नाम हरिसिंह साँखला था।
- 1513 ई. में इन्हें ज्ञान प्राप्त हुआ और इन्होंने अपना नाम हरिदास रख लिया था।
- निरंजनी संप्रदाय विरक्ति और अनासक्ति (निर्गुण व सगुण) में विश्वास रखता है।
- इस संप्रदाय में परमात्मा को अलख निरंजन या हरि निरंजन कहा जाता है।
- संत हरिदास के आध्यात्मिक विचार मंत्र राजप्रकाश और हरिपुरुष की वाणी नामक ग्रन्थों में संकलित हैं।
- डीडवाना में 1543 ई. में इनका देहान्त हुआ था।
संत रामचरणजी
- रामस्नेही संप्रदाय के प्रवर्तक संत रामचरणजी का जन्म सोडा (जयपुर) में वैश्य परिवार में हुआ था।
- इनके पिता का नाम बखतराम व माता का नाम देउजी था।
- रामचरणजी के बचपन का नाम रामकिशन था।
- दांतड़ा गाँव में अपने गुरू कृपाराम से दीक्षा लेने के बाद इन्होंने अपना नाम रामचरण रखा था।
- 1758 ई. में गलताजी में विरक्त वेश धारण किया था।
- शाहपुरा में साधना करते हुए निर्गुण भक्ति और प्रेम का उपदेश दिया।
- शाहपुरा के शासक रणसिंह ने इनके रहने के लिए एक छतरी का निर्माण और एक मठ स्थापित करवाया।
- 1798 ई. में शाहपुरा में ही इनका निधन हुआ।
- शाहपुरा में इनकी स्मृति में एक विशाल गुरूद्वारा बना हुआ है।
- रामचरण के आध्यात्मिक उपदेश अणभैवाणी नामक ग्रंथ में संकलित हैं।