अंग-प्रत्यंग एवं मनोभावों के साथ की गई नियंत्रित यति-गति को नृत्य कहा जाता है।
भारतीय नृत्यकला को दो वर्गों में बाँटा जाता है- 1. शास्त्रीय नृत्य 2. लोक नृत्य
शास्त्रीय नृत्य जहाँ शास्त्र-सम्मत एवं शास्त्रानुशासित होता है, वहीं लोक विभिन्न राज्यों के स्थानीय एवं जनजातीय समूहों द्वारा संचालित होते हैं और इनका कोई निर्धारित नियम-व्याकरण या अनुशासन नहीं होता है।
लोक नृत्यों पर देश की भौगोलिक स्थिति, सामाजिक बंधन आदि का प्रभाव पड़ता है। राजस्थान के प्राकृतिक वातावरण, मरुस्थल, पर्वत, जंगल, जलवायु आदि का प्रभाव यहाँ के लोगों के स्वभाव, चरित्र, कार्य, संगीत तथा नृत्य पर भी पड़ता है।
शास्त्रीय नृत्यों में तांडव (शिव) और लास्य (पार्वती) दो प्रकार के भाव परिलक्षित होते हैं।
भारतीय शास्त्रीय नृत्य की प्रमुख आठ शैलियाँ हैं, जो निम्नलिखित है-
शास्त्रीय नृत्य
भाव
भरतनाट्यम (तमिलनाडु)
लास्य भाव
कत्थकली (केरल)
तांडव भाव
मणिपुरी (मणिपुर)
लास्य तांडव
ओडिसी (ओडिशा)
लास्य भाव
कुचीपुड़ी (आंध्र प्रदेश)
लास्य भाव
मोहिनीअट्टम (केरल)
लास्य भाव
सत्रीया (असम)
लास्य भाव
कत्थक (जयपुर, उत्तर प्रदेश)
तांडव लास्य
कत्थक (जयपुर, उत्तर प्रदेश)
कत्थक शब्द का उद्भव कथा शब्द से हुआ है जिसका शाब्दिक अर्थ कथा कहना है।
वस्तुतः कत्थक उत्तर प्रदेश की ब्रजभूमि की रासलीला परंपरा से जुड़ा हुआ है।
इसमें पौराणिक कथाओं के साथ ही ईरानी एवं उर्दू कविता से ली गई विषय-वस्तुओं का नाटकीय प्रस्तुतीकरण किया जाता है।
इसे नटवरी नृत्य के नाम से भी जाना जाता है।
अवध के नवाब वाजिद अली शाह के समय ठाकुर प्रसाद एक उत्कृष्ट नर्तक थे।
कत्थक नृत्य की खास विशेषता इसके पद संचालन और घिरनी खाने में है। इसमें घुटनों को मोड़ा नहीं जाता है।
इसे ध्रुपद एवं ठुमरी गायन के माध्यम से व्यक्त किया जाता है।
भारत के शास्त्रीय नृत्यों में केवल कत्थक का ही संबंध मुस्लिम संस्कृति से रहा है। इस शास्त्रीय नृत्य में अपने विशेष बोल, भाव-पक्ष, लयकारी, पदाघात इत्यादि पर आगे चलकर विभिन्न घरानों का निर्माण हुआ। जैसे जयपुर घराना, लखनऊ घराना, बनारस अथवा जानकी प्रसाद घराना, सुखदेव प्रसाद और रायगढ़ घराना।
जयपुर घराना का विकास कछवाहा राजवंश के संरक्षण में हुआ था। यह कथक नृत्य की हिन्दू शैली का प्रतिनिधित्व करता है।
इसी घराने के कलाकारों ने ही सम्पूर्ण भारत में इस शैली का प्रचार-प्रसार किया। अतः जयपुर घराना कथक नृत्य शैली का आदिम घराना माना जाता है। इस घराने के प्रवर्तक भानू जी थे। इस नृत्य में पखावज का अधिक प्रयोग किया जाता है।
घूमर नृत्य
घूमर नृत्य राजस्थान का राज्य नृत्य है।
घूमर नृत्य की उत्पति मूलतः मध्य एशिया भरंग नृत्य/मृग नृत्य से हुई है।
घूमर नृत्य को राजस्थान की आत्मा, लोक नृत्य का सिरमौर और रजवाड़ी लोक नृत्य कहा जाता है।
यह नृत्य सिर्फ महिलाओं द्वारा किया जाता है, जिसमें महिलाएँ घेरा बनाकर नृत्य करती हैं।
नृत्य के दौरान लहंगे का घेर, जो वृताकार रूप में फैलता है उसे घूम कहते हैं।
महिलाएँ नृत्य करते समय अपनी धुरी पर ही घूमती रहती है।
नृत्य में आठ चरण होते हैं जिन्हें सवाई कहा जाता है।
इसमें मुख्य रूप से ढोल, नगाड़ा और शहनाई वाद्य यंत्र का प्रयोग किया जाता है।
यह नृत्य गणगौर के अवसर पर सर्वाधिक किया जाता है।
घूमर के तीन रूप झूमरिया (बालिकाओं द्वारा), लूर (गरासिया जनजाति की स्त्रियों द्वारा) और घूमर (सभी स्त्रियाँ द्वारा) है।
घूमर नृत्य को संरक्षित और बढ़ावा देने के लिए वर्ष 1986 में संतरामपुर की महारानी राजमाता गोवर्धन कुमारी द्वारा गणगौर घूमर नृत्य अकादमी की स्थापना की गई थी।
अग्नि नृत्य
अग्नि नृत्य जसनाथी सम्प्रदाय का प्रसिद्ध नृत्य है।
इस नृत्य का उद्गम स्थल बीकानेर जिले का कतरियासर गाँव है।
यह नृत्य जसनाथी पुरूष सिद्धों द्वारा किया जाता है।
लकड़ी जलाकर सात फुट लम्बा, चार फुट चौड़ा व तीन-चार फुट ऊँचा धूणा बनाया जाता है।
नृत्यकार गुरु को नमस्कार करने के बाद गुरु के सामने नाचते हुए फतै-फतै के उच्चारण के साथ अंगारों के ढेर में प्रवेश करते हैं। अंगारों को मतीरा कहा जाता है। नृत्यकार अंगारों से विविध करतब ऐसे करता है जैसे होली पर फाग खेल रहा हो।
इस नृत्य के दौरान कृषि गतिविधियाँ भी की जाती है। वर्तमान में यह एक व्यावसायिक लोक नृत्य बनता जा रहा है।
बीकानेर के गंगासिंह ने इस नृत्य के कलाकारों को प्रोत्साहन दिया था।
कच्छी घोड़ी नृत्य
यह नृत्य शेखावाटी क्षेत्र तथा कुचामन, परबतसर, डीडवाना क्षेत्रों में विवाह के अवसर पर मनोरंजन के रूप में किया जाता है।
यह केवल पुरुषों द्वारा किया जाता है। इसमें आठ पुरूष दो पंक्तियाँ बनाकर नृत्य करते हैं।
इसमें नर्तक बाँस की बनी घोड़ियाँ अपनी कमर में बाँधकर दूल्हे-सा वेश बनाकर तलवार हाथ में लेकर घोड़ी नचाते हुए नकली लड़ाई का दृश्य प्रस्तुत करता है।
वाद्य यंत्र के रूप में ढोल, बाँकिया, झाँझ व थाली बजाई जाती है।
वर्तमन में इस नृत्य ने व्यावसायिक रूप ले लिया है।
ढोल नृत्य
ढोल नृत्य जालौर क्षेत्र का प्रसिद्ध नृत्य है।
विवाह के अवसर पर मुख्यत ढोली और भील जाति के पुरुषों द्वारा यह नृत्य किया जाता है।
इसमें एक साथ चार या पाँच ढोल बजाये जाते हैं। ढोल का मुखिया इसको थाकना शैली में बजाना शुरू करता है।
थाकना बन्द होने पर नृत्यकार अंग संचालन करते हुए नृत्य शुरू करता है।
जयनारायण व्यास ने इस नृत्य के कलाकारों को प्रोत्साहन दिया था।
घुड़ला नृत्य
घुड़ला, जोधपुर क्षेत्र का विशुद्ध स्त्री नृत्य है, जो केवल महिलाओं द्वारा ही शीतलाष्टमी से गणगौर तक किया जाता है।
नृत्य में स्त्रियाँ एक छिद्रित मटके, जिसमें दीपक जलता रहता है, को सिर पर रखकर नृत्य करती हैं।
इस मटके को घुड़ला कहा जाता है।
घुड़ला नृत्य जोधपुर के राजा सातल की याद में किया जाता है।
कोमल कोठारी तथा देवीलाल सामर ने इस नृत्य के कलाकारों को प्रोत्साहन दिया था।
मारवाड़ क्षेत्र में छिद्र युक्त छोटे-छोटे मटकों (घुड़ला नृत्य से छोटे) में दीपक रखकर महिलाओं द्वारा सामूहिक रूप से किया जाने वाला नृत्य झांझी नृत्य होता है।
तेरहताली नृत्य
कामड़ जाति तेरहताली नृत्य के साथ रामदेवजी का यशोगान करती है।
कामड़ जाति की औरतें तेरहताली का प्रदर्शन करती हैं और पुरूष इनके साथ मंजीरा, तानपूरा, चौतारा बजाते हैं।
यह नृत्य तेरह मंजीरों के साथ किया जाता है, नौ दायें पैर में, दो हाथों की कोहनी के ऊपर और एक-एक दोनों हाथों में होते हैं। हाथ वाले मंजीरे अन्य मंजीरों से टकराकर ध्वनि उत्पन्न करते हैं।
इस नृत्य का मुख्य केंद्र पाली का पादरला है। माँगीबाई और लक्ष्मणदास तेरहताली नृत्य के प्रमुख नृत्यकार हैं।
वर्तमान में यह नृत्य धीरे-धीरे व्यावसायिक लोक नृत्य का रूप ले रहा है।
[…] राजस्थान के लोक नृत्य Part-1 […]
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