लोक गीत फसल कटने, विवाह, त्योहारों और यहाँ तक कि मृत्यु जैसे दुःखद अवसरों पर भी गाए जाते हैं।
लोक संगीत किसी प्रकार के जटिल नियमों में बंधे नहीं होते है। इनमें समाज की व्यापक भागीदारी होती है।
राजस्थान के लोक संगीत को तीन भागों में विभक्त किया जाता है-
प्रथम जनसाधारण लोक गीत
द्वितीय व्यावसायिक लोक गीत
तृतीय क्षेत्रीय लोक गीत
जनसाधारण लोक गीत
जनसाधारण गीत जनसामान्य द्वारा विशेष अवसरों पर गाये जाते हैं।
जनसाधारण द्वारा गाये जाने वाले गीतों को भी विषय के आधार पर पाँच भागों में बाँटा जाता है-
संस्कार संबंधी गीत लोक गीतों में सर्वाधिक संख्या विभिन्न संस्कारों, पर्वो व त्योहारों के अवसर पर गाये जाने वाले गीतों की है। सोलह संस्कार में भी जन्म व विवाह संबंधी गीत गाये जाते हैं। विवाह संस्कार के आयोजन में सगाई, बधावा, चाकभात, रतजगा, हल्दी, घोड़ी, बना-बनी, वर निकासी, तोरण, हथलेवा, कंवर कलेवा, जीमणवार, कांकणडोरा, जलवा आदि के गीत गाये जाते हैं। परिवार में बालक के जन्म के अवसर पर गाये जाने वाले गीत ‘जच्चा’ गीत कहलाता है।
त्योहार व पर्व संबंधी गीत गणगौर, तीज, होली, दीपावली आदि पर अनेक प्रकार के गीत गाये जाते हैं। श्रावण माह की प्रकृति का सौन्दर्य चित्रण करते हुए तीज के गीत गाये जाते है।
ऋतु संबंधी गीत – राजस्थान में ऋतु गीतों का भी प्रचलन है। हींदा (झूला), सावण, वर्षा आदि ऋतु गीत हैं।
धार्मिक गीत धार्मिक आस्था के कारण सगुण व निर्गुण लोक भजन व कीर्तन पर्याप्त संख्या में मिलते हैं। धार्मिक गीतों में लोक देवताओं के गीतों का आधिक्य है जिनके त्याग, बलिदान व चमत्कारों से लोक मानस अभिभूत रहता है। विनायक, महादेव, विष्णु व उनके अवतार, बालाजी, भैंरूजी, जुझारजी, पाबूजी, तेजाजी, गोगाजी, रामदेवजी, सती माता, दियाड़ी माता, सीतला माता, भोमियाजी आदि के अनेक गीत मिलते हैं।
विविध विषयों से सबंधित गीत राजस्थान की लोक संस्कृति में कई प्रकार के गीत मिलते हैं जिनमें शाश्वत आकांक्षाओं, भावों एवं प्रसंगों को प्रकृति के माध्यम से अभिव्यक्त किया गया है, जैसे ईंडोणी, कांगसियो, गोरबंद, पणिहारी, लूर, ओलूँ, हिबकी, सुपणा, मूमल, कुरजाँ, काजलिया, कागा आदि।
व्यावसायिक लोक गीत
व्यावसायिक लोक गीत राजशाही के प्रभाव के कारण विकसित हुए और जिन्हें कई जातियों ने अपना व्यावसाय बना लिया।
ये जातियाँ शासक वर्ग के प्रशंसा के गीत गाती रही और कालान्तर में वे लोक संगीत के अंग बन गए थे।
राजस्थान की ढोली, मीरासी, लंगा, ढाढ़ी, कलावन्त, भाट, राव, जोगी, कामड़, वैरागी, गन्धर्व, भोपे, भवाई, राणा, कालबेलिया आदि जातियों ने लोक संगीत को अपनी जीविका का आधार बनाया है।
इनके गीत परिष्कृत, भावपूर्ण और वैविध्यमय होते हैं।
इन गीतों में माँड, देस, सोरठ, मारू, परज कालिंगड़ा, जोगिया, आसावरी, बिलावल, पीलू आदि कई राग मिलते हैं।
राग सोरठ व देश की बन्दिशें भी इन गीतों में हैं।
माँड, देस व सोरठ तीनों श्रृंगारिक राग हैं और इनके प्रचार का श्रेय इन्हीं जातियों को है।
इनके द्वारा गाये जाने वाले वीर रसात्मक गीत सिन्धु और मारू रागों पर आधृत है जिन्हें रण-प्रयाण के समय गाया जाता था।
क्षेत्रीय गीत
क्षेत्रीय गीतों में क्षेत्रीय प्रभाव परिलक्षित होता है।
राजस्थान में मरुस्थल, पर्वतीय क्षेत्र व समतल मैदान आदि सभी भौगोलिक स्थितियाँ मिलती हैं।
संगीत की धुनों के निर्माण में भौगोलिक विभिन्नता भी दृष्टिगत होती है।
क्षेत्रीय विशिष्टता के आधार पर भी लोकगीतों का वर्गीकरण किया जाता है-
मरुप्रदेश के गीत जैसलमेर, बाड़मेर, बालोतरा, बीकानेर, जोधपुर आदि मरुस्थल क्षेत्र के गीत आकर्षक व मधुर होते हैं। दूर- दूर तक विस्तृत रेत के टीलों में गीत के स्वरों की गूंज विशिष्ट प्रभाव उत्पन्न करती है। उन्मुक्त क्षेत्र के कारण यहाँ के लोकगीत ऊँचे स्वरों व लम्बी धुन वाले होते हैं जिनमें स्वर विस्तार अधिक होता है। कुरजां, पीपली, रतनराणो, मूमल, घूघरी, केवड़ा आदि मरु प्रदेश के प्रमुख लोक गीत हैं।
पर्वतीय क्षेत्र के गीत उदयपुर, सलूम्बर, डूंगरपुर, बाँसवाड़ा, प्रतापगढ़, सिरोही तथा आबू राजस्थान के दक्षिणी प्रदेश हैं। यहाँ पर भील, मीणा, गरासिया, सहरिया आदि जातियाँ निवास करती हैं। इनका संगीत अभी प्रारम्भिक अवस्था में है। अधिकांश गीत दो या चार स्वरों पर आधारित होते हैं, जिनमें स्वरों व शब्दों का सौन्दर्य अधिक नहीं होता है। गीतों की धुनें सरल, संक्षिप्त व कम स्वरों वाली होती हैं। गीतों के साथ मादल बजती है तथा स्त्रियाँ व पुरुष सम्मिलित होकर नृत्य करते हैं। पटेल्या, बीछियो, लालर आदि पर्वतीय क्षेत्रों के गीत हैं।
मैदानी क्षेत्रों के गीत जयपुर, कोटा, अलवर, भरतपुर, डीग, करौली तथा धौलपुर क्षेत्र राजस्थान का समतल मैदानी भाग है, जिनमें भाषा और स्वर रचना की दृष्टि से अनेक गीत प्रचलित हैं। इनमें स्वरों का उतार-चढ़ाव अधिक मिलता है। यहाँ भक्ति व श्रृंगार रस के गीतों का आधिक्य है जो कि सामूहिक रूप से गाये जाते हैं।
रस की दृष्टि से राजस्थान में सर्वाधिक संख्या श्रृंगार रस के गीतों की है। इनमें भी वियोग श्रृंगार का वर्णन विशेष मिलता है जिसके पीछे परदेश गमन की मजबूरी है। श्रृंगार के पश्चात शांत रस और फिर वीर रसात्मक गीत आते हैं।
प्रमुख लोक गीत
केसरिया बालम गीत – केसरिया बालम आओ नी पधारो म्हारो देश गीत को राजस्थान का राज्य गीत का दर्जा है। बीकानेर की अल्ला जिलाह बाई ने इस गीत को पहचान दिलाई है। यह मांड गायन शैली में गाया हुआ है। यह एक रजवाड़ी गीत है। इसमें विदेश गए पति को वापस आने का संदेश दिया जाता है। इसमें पति की प्रतिक्षा करती एक नारी की विरह व्यथा है।
चिरमी गीत – ससुराल में वधु अपने भाई या पिता की आने की प्रतिक्षा में गाया जाने वाला गीत है। इसमें लड़की चिरमी पौधे के माध्यम से अपने पीहर वालों को याद करती है।
मोरियो गीत – मोरियो एक विरह गीत है। लड़की की सगाई तो कर दी गई है लेकिन विवाह में देरी हो जाती है। उस समय लड़की द्वारा अपने होने वाले पति की याद में गाया जाने वाला गीत है।
पपीहा/पपैया गीत – पपीहा भी एक विरह गीत है। प्रेमिका अपने प्रेमी को उपवन (बगीचा) में आकर मिलने के आग्रह में गाया जाने वाला गीत है।
कुरजां गीत – पत्नी अपने परदेश गए हुए पति की याद में गाया जाने वाला गीत है। कुरजां पक्षी के माध्यम से अपने पति के पास संदेश भेजती है।
ढोला मारू गीत – सिरोही क्षेत्र का एक लोकगीत है जो किसी की याद में गाया जाता है। यह ढोला-मारू की प्रेम कहानी पर आधारित है। यह ढ़ाढ़ी जाति के गायकों द्वारा गाया जाता है।