कार्तिक शुक्ला एकादशी से पूर्णिमा तक पुष्कर (अजमेर) में विशाल मेला लगता है।
इस मेले में विदेशी पर्यटक बड़ी संख्या में आते हैं।
इसमें पर्यटन विभाग द्वारा अनेक प्रतियोगिताएँ तथा सांस्कृतिक कार्यक्रम आयोजित किए जाते हैं।
पुष्कर मेला सम्भवतः राजस्थान का सबसे बड़ा मेला है।
यह मेला ऊँटों की खरीद-बिक्री के लिए प्रसिद्ध है।
मेले में पारम्परिक वेशभूषा में भोपा भगत व भाट जातियाँ वीरगाथाओं का गायन करती हैं।
डिग्गी कल्याणजी का मेला
टोंक जिले के मालपुरा में कल्याणजी का मंदिर स्थित होने के कारण डिग्गी का मेला लगता है।
कल्याणजी को भगवान विष्णु का अवतार माना जाता है।
वर्ष में तीन बार श्रावण मास की अमावस्या, वैशाख पूर्णिमा और भाद्रपद मास की एकादशी को मेला लगता है।
बेणेश्वर मेला
डूंगरपुर जिले की आसपुर तहसील के नेवटपुरा नामक स्थान पर सांबला गाँव के पास सोम, माही एवं पर संत मावजी की तपोभूमि बेणेश्वर धाम स्थित है, जहाँ बेणेश्वर मेला लगता है।
जाखम नदियों के संगम 6 7 8 > आदिवासियों का कुंभ के नाम से प्रसिद्ध यह मेला आदिवासियों का सबसे बड़ा मेला है।
माघ शुक्ला एकादशी से माघ पूर्णिमा तक यह मेला लगता है।
बेणेश्वर में पाँच स्थानों से खण्डित शिवलिंग है।
मूर्ति को पुजारी के अलावा अन्य व्यक्ति के छूने की मनाही है।
इस मेले में आदिवासी युवक-युवतियाँ अपने जीवन-साथी का चुनाव करते हैं।
भर्तृहरि मेला
लोक आस्था का केन्द्र भर्तृहरि अलवर में स्थित है।
यह उज्जैन के राजा भर्तृहरि का तपस्या स्थल है।
यहाँ वर्ष में दो बार वैशाख मास और भाद्रपद शुक्ल सप्तमी अष्टमी को मेला लगता है।
मेले में मुख्यतः मीणा, गुर्जर, अहीर, जाट तथा बागड़ा जाति के लोग पहुँचते हैं।
कालबेलिया नृत्य इस मेले का मुख्य आकर्षण है।
श्रीमहावीरजी मेला
जैन धर्म के 24वें तीर्थंकर महावीर स्वामी की स्मृति में करौली की हिण्डौन तहसील में गंभीरी नदी तट पर स्थित चंदन गाँव में चैत्र शुक्ला त्रयोदशी से वैशाख कृष्णा प्रतिपदा तक महावीरजी का मेला लगता है।
मेले के दौरान रथयात्रा प्रारम्भ होने से पूर्व आज भी चर्मकार ग्वाले के वंशज सम्मानित किए जाते हैं।
वैशाख कृष्ण प्रतिपदा को महावीर जी की भव्य रथयात्रा निकाली जाती है।
रथ का संचालन हिण्डौन के उपजिला कलेक्टर राज्य सरकार के प्रतिनिधि के रूप में सारथी बनकर करते हैं।
रथयात्रा में रथ के आगे मीणा जाति के लोग लोकगीत गाते हुए चलते हैं तथा वापसी में उनका स्थान गुर्जर लेते हैं।
कैलादेवी का मेला
करौली जिले में कालीसिल नदी के तट पर त्रिकुट पर्वत पर कैला देवी का मंदिर स्थित है।
यहाँ चैत्र शुक्ल अष्टमी को मेला लगता है।
यह राज्य का लक्खी मेला है।
मंदिर के मुख्य कक्ष में कैलादेवी और चामुण्डा देवी की प्रतिमाएँ प्रतिष्ठापित हैं।
मंदिर परिसर में एक हनुमान मंदिर भी बना हुआ है, जिसे स्थानीय भाषा में लांगुरिया कहते हैं।
लांगुरिया नृत्य मेले का मुख्य आकर्षण होता है।
दशहरा मेला
आश्विन माह में लगने वाला कोटा का दशहरा मेला पूरे देश में प्रसिद्ध है।
विजय पर्व के रूप में दशहरा मेले की शुरुआत 1895 ई. में महाराव उम्मेदसिंह ने की थी।
विजयादशमी के दूसरे दिन से मेला प्रारम्भ होता है।
इस अवसर पर एक पशु मेले का आयोजन भी किया जाता है।
ख्वाजा मोइनुद्दीन चिश्ती का उर्स
विश्व का दूसरा मक्का कहलाने वाला अजमेर सूफी संत ख्वाजा मोइनुद्दीन चिश्ती की स्मृति में उनकी मृत्यु की बरसी पर आयोजित उर्स के मेले के लिए प्रसिद्ध है।
उर्स का यह मेला छह दिन तक चलता है।
उर्स का महोत्सव सजदा नशीन द्वारा सफेद ध्वजारोहण आरम्भ होता है।
चौथे दिन दरगाह का जन्नती दरवाजा खोला जाता है।
उर्स के दौरान ही ख्वाजा के मजार पर चादर चढ़ाने की रस्म अदा होती है।
जायरीन (श्रद्धालु) अपने साथ लाई चादरे ख्वाजा की मजार पर
उर्स के दौरान जुम्मे की नमाज (शुक्रवार) का बड़ा महत्त्व होता है।
दरगाह में जाति/सम्प्रदाय, लिंग इत्यादि का प्रवेश पर कोई बंधन नहीं है।
करणी माता का मेला
बीकानेर के देशनोक में बीकानेर के राठौड़ राजघराने की अधिष्ठात्री देवी करणी माता का मन्दिर स्थित है।
चूहों के मंदिर के नाम से विख्यात इस मंदिर में चूहे लोगों से बिना भयभीत हुए निःशंक विचरण करते हैं।
यहाँ चूहों का विशेष माहात्म्य है।
यहाँ प्रतिवर्ष चैत्र नवरात्रा एवं आश्विन नवरात्रा में मेलों का आयोजन होता है।
जीण माता का मेला
सीकर जिले के रैवासा गाँव में हर्ष की पहाड़ी पर जीण माता का मंदिर स्थित है।
यह मंदिर केवल पूर्व दिशा में खुला हुआ है, बाकी तीनों दिशाओं में यह पर्वत श्रृंखलाओं से घिरा हुआ है।
मंदिर में जीण माता की अष्टभुजी प्रतिमा स्थापित है, जिसके सामने घी और तेल के दो दीपक अखण्ड रूप से कई वर्षों से जलते आ रहे हैं।
इन दीपक ज्योतियों की व्यवस्था दिल्ली के चौहान राजाओं ने शुरू की थी।
बाद में यह जयपुर राज्य की ओर से की जाने लगी, जो जयपुर राज्य के अस्तित्व में रहने तक जारी रही।
यहाँ पाँचों पाण्डवों की आदमकद प्रस्तर प्रतिमाएँ हैं।
यहाँ वर्ष में दो बार चैत्र और आश्विन मास के नवरात्रों में मेला लगता है।
यहाँ देवी को सुरा का भोग लगाया जाता है।
मुख्यतः राजपूत और मौणा जाति के लोग इस देवी की आराधना करते हैं।
शीतला माता का मेला
जयपुर ग्रामीण जिले में चाकसू तहसील के शील की डूंगरी गाँव में चैत्र कृष्णा सप्तमी अष्टमी को शीतला माता का मेला लगता है।
पहाड़ी पर शीतला माता का मंदिर है, जिसका निर्माण जयपुर के शासक माधोसिंह ने करवाया था।
ग्रामीण रंगीन कपड़ों में सजे अपनी सुसज्जित बैलगाड़ियों से मेले में आते हैं, इसलिए इसे बैलगाड़ी मेले के नाम से जाना जाता।
शीतला माता का पुजारी कुम्हार ही होता है।
इस अवसर पर पशु मेले का आयोजन भी किया जाता है।
शीतला माता को मात्रक्षिका देवी के रूप में पूजा जाता है।
उत्तर भारत में इसे महामाई, प. भारत में माई अनामा और राजस्थान में सेढ़, शीतला व सैढ़ल माता के रूप में जाना जाता है।
शीतला माता को बच्चों की संरक्षिका माना जाता है।
ऐसी मान्यता है कि चेचक का प्रकोप माता की रुष्टता के कारण ही होता है।
रणथम्भौर का गणेश मेला
सवाई माधोपुर के रणथम्भौर किले में भाद्रपद शुक्ला चतुर्थी (गणेश चतुर्थी) को गणेशजी का मेला लगता है।
लोक प्रथा के अनुसार विवाह की कुमकुम पत्रिका रणथम्भौर के गणेशजी को सर्वप्रथम पहुँचाई जाती है।
मेले के दौरान लड्डुओं के ढेर और मूषकों की उछल-कूद मनोहारी दृश्य उपस्थित करती है।
रानी सती का मेला
झुंझुनूँ नगर में रानी सती का मेला लगता था। यह मेला 1912 ई. में पहली बार आयोजित किया गया था।
अपने पति के साथ सती होने वाली नारायणी देवी की स्मृति में यह मेला लगता है।
1988 से सती निषेध कानून के तहत इस मेले पर प्रतिबंध है।