राजस्थान की लोक नाट्य कला

नौटंकी

  • नौटंकी का अर्थ नाटक का अभिनय करना है।
  • नौटंकी पूर्वी राजस्थान में करौली, धौलपुर, भरतपुर, अलवर आदि क्षेत्रों में लोकप्रिय है।
  • इसके प्रवर्तक भूरीलाल जी तथा मुख्य कलाकार गिरीराज प्रसाद है।
  • भरतपुर में नौटंकी हाथरस शैली में प्रस्तुत की जाती है। इसे स्त्री एवं पुरुष दोनों ही प्रस्तुत कर सकते हैं।
  • इसमें नगाड़े के साथ सारंगी, शहनाई, ढपली आदि नौ प्रकार के वाद्य यंत्रों का प्रयोग किया जाता है।
  • अमरसिंह राठौड़, आल्हा ऊदल, हरिशचन्द्र तारामती, सत्यवान सावित्री एवं लैला-मजनू आदि नाटकों का मंचन किया जाता है।
  • नत्थाराम की मण्डली ने इसे धौलपुर और भरतपुर क्षेत्र में प्रसिद्धि दिलाई थी।
  • नौटंकी विवाह समारोहों, उत्सवों एवं मेलों के अवसर पर प्रस्तुत की जाती है।

तमाशा

  • तमाशा जयपुर की परम्परागत लोक नाट्य शैली है।
  • जयपुर महाराजा प्रतापसिंह ने तमाशा के प्रमुख कलाकार बंशीधर भट्ट को इस नाट्य विधा को प्रोत्साहन देने हेतु महाराष्ट्र से लेके आए। यह मूल रूप से महाराष्ट्र का लोक नाट्य है।
  • जयपुर में इस शैली को भट्ट परिवार ने जीवित रखा है। इस परिवार में उस्ताद परम्परा फूलजी भट्ट द्वारा प्रारम्भ की गई।
  • वर्तमान में गोपीचन्द भट्ट एवं वासुदेव भट्ट (गोपीचन्द व हीर राँझा के रचयिता) तमाशा कलाकार हैं।
  • तमाशा खुले मंच पर किया जाता है, जिसे अखाड़ा कहा जाता है।
  • तमाशे में संगीत, नृत्य और गायन इन तीनों की प्रधानता होती है।
  • बंशीधर भट्ट द्वारा रचित तमाशों में पठान, कान-गूजरी, रसीली-तम्बोलन, हीर रांझा (होली के दूसरे दिन), जोगी-जोगन (होली के दिन), लैला-मंजनू, छैला पनिहारिन, जुठुन मियां (शीतलाष्टमी के दिन) आदि प्रमुख हैं।

फड़

  • राजस्थान में लोक देवताओं की जीवन-गाथा को कपड़े पर चित्रित करना फड़ कहलाता है।
  • फड़ भोपों द्वारा खेली (बांची) जाती है। चित्रित फड़ को दर्शकों के सामने खड़ा तान दिया जाता है।
  • भोपा गायक की पत्नी या सहयोगिनी, लालटेन लेकर फड़ के पास नाचती-गाती हुई पहुँचती है और वह जिस अंश को बाँचती है उसे लकड़ी की डंडी से इंगित भी करती जाती है।
  • भोपा रावणहत्था बजाता हुआ स्वयं भी नाचता रहता है। यह नृत्य गान समूह के रूप में होता है।
  • पाबूजी की फड़ और देवनारायणजी की फड़ राजस्थान में प्रसिद्ध हैं।
  • श्रीलाल जोशी (भीलवाड़ा) ने फड़ को राष्ट्रीय एवं अन्तर्राष्ट्रीय स्तर पर पहचान दिलाई है।

गवरी

  • गवरी मेवाड़ क्षेत्र के भीलों का लोक नाट्य है। इसे लोक नाट्यों का मेरु नाट्य भी कहा जाता है।
  • यह राजस्थान का प्राचीनतम लोक नाट्य है। गवरी का संचालन एवं नियंत्रण संगीत द्वारा होता है।
  • भील प्रतिवर्ष श्रावण-भाद्रपद मास में 40 दिन तक इसका आयोजन करते हैं।
  • गवरी एक धार्मिक लोक नाट्य है, गवरी (गौरी) भीलों की मुख्य आराध्य देवी है।
  • यह शिव भस्मासुर की कहानी पर आधारित होता है।
  • यह सांस्कृतिक, कलात्मक एवं रंगमंचीय अभिनय तीनों ही दृष्टियों से अत्यन्त समृद्ध लोक नाट्य शैली है।
  • यह नाट्य केवल भील जाति के पुरुषों द्वारा ही खेला जाता है। इसमें स्त्रियों की भूमिका भी पुरुषों द्वारा ही खेली जाती है।
  • इस दौरान गवरी पात्रों पर स्त्री-गमन, माँस-मदिरा एवं हरी सब्जी सेवन पर पूर्णतः प्रतिबन्ध होता है।
  • रक्षाबन्धन के दूसरे दिन देवी गवरी की अनुमति से भील गवरी का मंचन शुरू करते हैं।
  • गवरी का मुख्य पात्र बूड़िया होता है। दोनों पार्वतियों की असली प्रतिमूर्ति (मोहिनी तथा असली पार्वती) दोनों राइयाँ, कुटकुड़िया तथा पाट भोपा, ये पाँच गवरी के मुख्य पात्र होते हैं। अन्य पात्र खेल्ये कहलाते हैं।
  • गवरी नृत्य में झामट्या पात्र लोकभाषा में कविता बोलता है और खट्कििड़या उसको दोहराता है और बीच-बीच में जोकर का काम करता है। कुटकुड़िया इस नाट्य का सूत्रधार होता है।
  • इसमें विभिन्न कहानियों को बीच में मिलने हेतु नृत्य किया जाता है जिसे गवरी का घाई कहा जाता है।
  • गवरी लोक नाट्य में मुख्य वाद्य यंत्र मांदल और थाली होते है।
  • बनजारा, देवी, अम्बड़, बादशाह की सवारी, भिन्यावड़, खेड़लिया भूत तथा शेर-सुअर की लड़ाई गवरी के मुख्य कहानियाँ हैं।
  • गोमा-मीणा, कालू-कीर, कान गूजरी, मियांवड़ व नाहर आदि छोटी नाटिकाएँ हैं, जिनका मंचन गवरी उत्सव में किया जाता है।

चारबैंत

  • चारबैंत लोक नाट्य विधा टोंक में संगीत दंगल के रूप में खेली जाती है। चारबैत कव्वाली के समकक्ष मानी जा सकती है।
  • मूल रूप से यह अफगानिस्तान का लोकनाट्य था जो पश्तो भाषा में प्रस्तुत किया जाता है।
  • टोंक में इसका प्रारम्भ टोंक के नवाब फैजुल्ला खाँ के शासनकाल में अब्दुल करीम खाँ निहंग द्वारा किया गया।
  • चारबैंत में गायक पात्र डफ बजाता हुआ घुटनों के बल खड़े होकर अपनी बात गाकर कहता है।
  • इसमें कुछ गायक ऊँची कूद लेकर उछलते हुए भी गाते हैं।

भवाई

  • गुजरात की सीमा से लगे राजस्थान के क्षेत्रों (उदयपुर, डूंगरपुर) में भवाई जाति द्वारा भवाई नाट्य का आयोजन किया जाता है।
  • भवाई लोक नाट्य अब व्यावसायिक रूप ले लिया है। इसके जन्मदाता बाघाजी जाट (केकड़ी) है।
  • भवाई नाट्य करने वाले कलाकार प्रतिवर्ष अपने यजमानों के पास जाते हैं, जहाँ उनका स्वागत होता है।
  • इसमें पात्र व्यंग्य वक्ता होते हैं, जो तात्कालिक समस्याओं पर सवाल जवाब और सामयिक समस्याओं पर व्यंग्य करते हैं।
  • इनका कोई रंगमंच नहीं होता है तथा कलाकार अपना परिचय नहीं देते है।
  • गायकी के गायन और नाट्य कलाकारों की हँसी-मजाक और संवाद से यह रोचक हो जाता है।
  • भवाई नाट्य में कथानक गौण हो जाते हैं लेकिन गायन, हास्य और नृत्य से समाँ बंध जाता है।
  • इस शैली पर आधारित शांता गाँधी द्वारा लिखित नाटक जस्मा ओडन ने देश-विदेश में प्रसिद्ध है।
  • इसके मुख्य कलाकार रूपसिंह शेखावत, दयाराम तथा तारा शर्मा है।
  • इसके मुख्य पात्र सगाजी एवं सगीजी कहलाते है।
  • भवाई नाट्य की प्रसिद्ध नृत्यांगना श्रेष्ठा सोनी को लिटिल वंडर की उपाधि प्राप्त हैं।

कठपुतली कला

  • राजस्थान में कठपुतली का इतिहास लोक कलाओं और कथाओं से जुड़ा हुआ है।
  • कठपुतली के खेल में कथाएँ, संवाद या गीत आदि सभी प्रदर्शन आम जीवन के अंग होते हैं।
  • यहाँ राजा-रानी, सेठ-सेठानी, जमींदार-किसान, जोकर आदि पात्रों को लेकर ज्यादा कठपुतलियाँ बनाई जाती हैं।
  • पहले अमरसिंह राठौड़, पृथ्वीराज चौहान, लैला-मजनू की कथाएँ ही कठपुतली खेल में दिखाई देती थी लेकिन अब परिवार नियोजन, प्रौढ़ शिक्षा एवं अन्य मनोरंजक कार्यक्रम भी दिखाये जाने लगे हैं।
  • उदयपुर में कठपुतली संग्रहालय है। बागोर हवेली (उदयपुर) में एक भाग में केवल कठपुतली खेल कला प्रदर्शित की गई है।

रामलीला

  • तुलसीदासजी द्वारा रामलीला शुरू की गई थी।
  • इन लोक नाट्यों की भाषा स्थानीय होती है और संवादों को गीतों द्वारा प्रस्तुत किया जाता है।
  • बीच-बीच में हास्य-मनोरंजनपूर्ण संवाद भी चलते रहते हैं।
  • बिसाऊ (झुंझुनूँ) में मूक रामलीला आयोजित की जाती है।
  • अटरू (बाराँ) की रामलीला में धनुष रामजी द्वारा न तोड़कर जनता द्वारा तोड़ा जाता है।
  • भरतपुर में वेंकटेश रामलीला प्रसिद्ध है।

गौर हाला

  • आबू क्षेत्र (सिरोही) की गरासिया जनजाति द्वारा गणगौर के समय गौर लीला किया जाता है।
  • इसमें महिला एवं पुरुष दोनों ही भाग लेते हैं। पुरुष मुखौटा पहनकर तलवारबाजी करते हैं।
  • यह वैशाख शुक्ल चतुदर्शी को की जाती है। इसकी मुख्य कहानी भख्योर की गणगौर है।

सनकादिक लीला

  • घोसुण्डा (चित्तौड़गढ़) में आश्विन महीने में व बस्सी (चित्तौड़गढ़) में कार्तिक में सनकादिक लीला आयोजित की जाती है।

रासलीला

  • जयपुर और भरतपुर क्षेत्रों में रासलीला प्रसिद्ध है तथा इसे शिवलाल कुमावत ने प्रसिद्धि दिलाई थी।

राजस्थान की लोक नाट्य कला Part – 1

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