राजस्थानी भाषा की बोलियाँ

  • राजस्थानी भाषा का उद्भव शौरसेनी अपभ्रंश से हुआ है। कुछ विद्वान् मानते हैं कि राजस्थानी ही अपभ्रंश की पहली संतान है।
  • एल.पी. टेसीटोरी के अनुसार बारहवीं शताब्दी के लगभग यह भाषा अस्तित्व में आ चुकी थी।
  • राजस्थानी भाषा के मरुभाषा, मरुभूम भाषा, मरुदेशीय भाषा, मरुवाणी आदि अनेक नाम मिलते हैं।
  • वर्तमान में राजस्थानी का अर्थ राजस्थान प्रान्त की भाषा से लिया जाता है।
  • 8 वीं शताब्दी में रचित उद्योतन सूरि के कुवलयमाला में वर्णित 18 देशी भाषाओं में मरुदेश की भाषा मरुवाणी का उल्लेख है।
  • आइन-ए-अकबरी में अबुल फजल ने प्रमुख भाषाओं में मारवाड़ी का नाम भी उल्लेख किया है।
  • राजस्थान की भाषा के लिए राजस्थानी नाम का प्रयोग सर्वप्रथम जॉर्ज अब्राहम ग्रियर्सन ने 1912 ई. में अपने प्रसिद्ध ग्रंथ लिंग्विस्टिक सर्वे ऑफ इण्डिया (भारतीय भाषा विषयक कोश) में किया है।
  • मोतीलाल मेनारिया, कन्हैयालाल माणिकलाल मुंशी आदि के अनुसार राजस्थानी भाषा का विकास गुर्जर अपभ्रंश से हुआ है।
  • एल.पी. टेसीटोरी ने इंडियन ऐन्टीक्वेरी पत्रिका में राजस्थानी भाषा की उत्पत्ति और विकास पर प्रकाश डाला है। उनके अनुसार गुर्जर अपभ्रंश से राजस्थानी भाषा का विकास हुआ है।
  • डॉ. नामवरसिंह के अनुसार पूर्वी राजस्थानी ब्रजभाषा से प्रभावित है, जबकि पश्चिमी राजस्थानी गुजराती से समानता रखती है।
  • राजस्थानी साहित्य में इन्हें पिंगल और डिंगल के नाम से जाना जाता है।
  • पूर्वी राजस्थानी का साहित्यिक रूप पिंगल (इसका विकास शौरसेनी अपभ्रंश से हुआ) और पश्चिमी राजस्थानी का साहित्यिक रूप डिंगल (इसका विकास गुर्जरी अपभ्रंश से हुआ) माना जाता है।
  • डॉ. जॉर्ज अब्राहम ग्रियर्सन ने राजस्थानी बोलियों को पाँच मुख्य वर्गों में विभक्त किया है-
  1. पश्चिमी राजस्थानी
  2. उत्तर-पूर्वी राजस्थानी
  3. मध्य-पूर्वी राजस्थानी
  4. दक्षिण-पूर्वी राजस्थानी
  5. दक्षिणी राजस्थानी
  • मोतीलाल मेनारिया ने राजस्थानी बोलियों को पाँच भागों में विभक्त किया है-
  1. मारवाड़ी
  2. ढूँढाड़ी
  3. मालवी
  4. मेवाती
  5. बागड़ी
  • एल.पी. टेसीटोरी ने राजस्थानी भाषा के दो भेद पूर्वी राजस्थानी (ढूँढाड़ी) और पश्चिमी राजस्थानी (मारवाड़ी) किए है।
  • राजस्थानी लिपि में कुछ अक्षरों को छोड़कर यह देवनागरी लिपि के जैसी ही है।
  • कुछ भाषा-शास्त्री महाजनी लिपि को राजस्थानी लिपि का विशुद्ध रूप बतलाते हैं, जबकि दोनों में थोड़ा अंतर है।
  • महाजनी अथवा वाणियावाटी लिपि का प्रयोग महाजन लोग अपने बहीखातों में करते हैं।
  • बिना मात्रा वाले महाजनी शब्द मोड़कर लिखे जाते हैं, जिन्हें मुड़िया अक्षर कहते हैं।
  • इन मुड़िया अक्षरों का सर्वप्रथम उपयोग मुगल बादशाह अकबर के वित्त मंत्री राजा टोडरमल ने किया था।

मारवाड़ी

  • पश्चिमी राजस्थान की प्रमुख बोली मारवाड़ी क्षेत्रफल की दृष्टि से राजस्थानी बोलियों में प्रथम स्थान रखती है।
  • यह मुख्य रूप से पश्चिमी राजस्थान में बोली जाती है।
  • जोधपुर, जोधपुर ग्रामीण, पाली, बीकानेर, अनूपगढ़, नागौर, डीडवाना-कूचामन, सिरोही, जैसलमेर जिलों में बोली जाती है।
  • थली, मेवाड़ी, बागड़ी, शेखावाटी, नागौरी, खैराड़ी, गोड़वाड़ी, ढाटी, देवड़ावाटी आदि इसकी उपबोलियाँ हैं।
  • विशुद्ध मारवाड़ी जोधपुर क्षेत्र में बोली जाती है। मारवाड़ी बोली के साहित्यिक रूप को डिंगल कहा जाता है।
  • मारवाड़ी बोली का साहित्य अत्यन्त समृद्ध है। अधिकांश जैन साहित्य मारवाड़ी बोली में ही लिखा गया है।
  • राजिया के सोरठे, वेलि क्रिसन रूकमणी री, ढोला-मरवण, मूमल आदि लोकप्रिय काव्य इसी बोली में हैं।

मेवाड़ी

  • मेवाड़ी बोली उदयपुर, भीलवाड़ा, शाहपुरा, चित्तौड़गढ़ व राजसमन्द जिलों के अधिकांश भाग में बोली जाती है।
  • मेवाड़ी बोली में साहित्य रचना कम हुई है। फिर भी इस बोली की अपनी साहित्यिक परम्परा है।
  • कुम्भा के समय की कीर्तिस्तम्भ प्रशस्ति में मेवाड़ी बोली का प्रयोग किया गया है।
  • मोतीलाल मेनारिया ने मेवाड़ी को मारवाड़ी की ही उपबोली माना है।
  • मेवाड़ी तथा मारवाड़ी बोली की भाषागत विशेषताओं में साम्य है। इसी कारण मारवाड़ी साहित्य में मेवाड़ी का भी योगदान है।
  • मेवाड़ी में ‘ए’ और ‘ओ’ की ध्वनि का विशेष प्रयोग होता है।
  • मारवाड़ के बाद यह राजस्थान की दूसरी महत्त्वपूर्ण बोली है।

गौड़वाड़ी

  • जालौर की आहौर तहसील के पूर्वी भाग से प्रारम्भ होकर बाली (पाली) में बोली जाने वाली बोली गौड़वाड़ी है।
  • बीसलदेव रासौ इस बोली की प्रमुख रचना है। गौड़वाड़ी बोली मारवाड़ी बोली की उपबोली है।
  • इसकी उपबोलियाँ सिरोही, बालवी, खणी व महाहड़ी है।

बागड़ी

  • डूंगरपुर और बाँसवाड़ा का सम्मिलित क्षेत्र बागड़ कहलाता था। इस क्षेत्र में बोली जाने वाली बोली बागड़ी कहलाती है।
  • बागड़ प्रदेश गुजरात के निकट है। इस कारण इस बोली पर गुजराती प्रभाव भी परिलक्षित होता है।
  • यह बोली मेवाड़ के दक्षिणी भाग, अरावली प्रदेश एवं मालवा तक बोली जाती है। ग्रियर्सन ने इसे भीली बोली कहा है।
  • इसमें च, छ का उच्चारण ‘स’ किया जाता है तथा भूतकालिक सहायक क्रिया ‘था’ के स्थान पर ‘हतो’ का प्रयोग किया जाता है।

ढूँढाड़ी

  • ढूँढाड़ी पूर्वी राजस्थान की प्रमुख बोली है जो किशनगढ़, जयपुर, टोंक, अजमेर, और मेरवाड़ा के पूर्वी भागों में बोली जाती है।
  • यह बोली गुजराती एवं ब्रजभाषा से प्रभावित है। यह बोली साहित्य की दृष्टि से समृद्ध है।
  • हाड़ौती, तोरावाटी, चौरासी, अजमेरी, किशनगढ़ी, नागरचोल, राजावाटी, काठेड़ी आदि इसकी प्रमुख उपबोलियाँ हैं।
  • दादूपंथ का अधिकांश साहित्य इसी बोली में लिपिबद्ध है। ईसाई मिशनरियों ने बाईबिल का ढूँढाड़ी अनुवाद प्रकाशित किया था।
  • इस बोली में वर्तमान काल के लिए ‘है’ एवं भूतकाल के लिए ‘छी’, ‘छौ’ का प्रयोग होता है।

मेवाती

  • मेवाती बोली अलवर, खैरथल-तिजारा, भरतपुर, डीग, धौलपुर और करौली के पूर्वी भाग में बोली जाती है।
  • मेवाती बोली पर ब्रजभाषा का प्रभाव दृष्टिगत होता है। साहित्य की दृष्टि से यह बोली समृद्ध है।
  • संत लालदास, चरणदास, दयाबाई, सहजोबाई, डूंगरसिंह आदि की रचनाएँ मेवाती बोली में हैं।

मालवी

  • मालवी बोली सम्पूर्ण मालवा प्रान्त एवं राजस्थान में झालावाड़, कोटा, प्रतापगढ़ आदि के कुछ क्षेत्रों में बोली जाती है।
  • काल रचना में हो, ही के स्थान पर थो, थी का प्रयोग होता है। नीमाड़ी व रांगड़ी इसकी उपबोलियाँ हैं।
  • इस बोली पर गुजराती एवं मराठी भाषा का भी न्यूनाधिक प्रभाव देखने को मिलता है। यह कोमल एवं मधुर बोली है।

हाड़ौती

  • कोटा, बूँदी, बाराँ और झालावाड़ क्षेत्र को हाड़ौती कहा जाता है। इस क्षेत्र में प्रचलित बोली हाड़ौती कहलाती है।
  • इसे ढूँढाड़ी की उपबोली माना जाता है। इस बोली पर गुजराती व मारवाड़ी का प्रभाव भी है।
  • बूँदी के प्रसिद्ध कवि सूर्यमल्ल मीसण की रचनाओं में हाड़ौती का प्रयोग मिलता है।

अहीरवाटी (राठी)

  • बहरोड़ (कोटपुतली-बहरोड़ जिला), मुण्डावर (खैरथल-तिजारा जिला) तथा किशनगढ़ (अजमेर जिला) के पश्चिमी भाग व कोटपुतली-बहरोड़ जिले के कोटपूतली में बोली जाती है।
  • प्राचीन काल में आभीर जाति की एक पट्टी इस क्षेत्र में आबाद हो जाने से यह क्षेत्र अहीरवाटी या हीरवाल कहा जाता है।
  • ऐतिहासिक दृष्टि से इस बोली क्षेत्र को राठ एवं यहाँ की बोली को राठी भी कहा जाता है।
  • यह देवनागरी, गुरुमुखी तथा फारसी लिपि में भी लिखी मिलती है।
  • कवि जोधराज का हम्मीर रासो और शंकरराव का भीमविलास इसी बोली में हैं।

रांगड़ी

  • रांगड़ी बोली मुख्यतः राजपूतों में प्रचलित है, जिसमें मारवाड़ी एवं मालवी का मिश्रण पाया जाता है।
  • यह बोली कर्कशता लिए होती है। इसे मालवी की उपबोली भी माना जाता है।

नीमाड़ी

  • नीमाड़ी मालवी की उपबोली मानी जाती है। नीमाड़ी को दक्षिणी राजस्थानी भी कहा जाता है।
  • इस पर गुजराती, भीली एवं खानदेशी का प्रभाव दृष्टिगत है।

                       जिलेवार बोली जाने वाली राजस्थानी बोलियाँ

मारवाड़ी – नागौर, बीकानेर, जैसलमेर, सिरोही, पाली, जोधपुर हाड़ौती – कोटा, बूँदी, झालावाड़, बाराँ
गोड़वाड़ी पाली व जालौर के कुछ क्षेत्रों में चौरासी – टोंक, जयपुर
शेखावाटी – सीकर, झुंझुनूं (मारवाड़ी व ढूँढाड़ी का प्रभाव) अहीरवाटी – अलवर, जयपुर
खैराड़ी – सिरोही, बूँदी एवं शाहपुरा तोरावाटी – झुंझुनूं, सीकर, जयपुर
मेवाड़ी – उदयपुर, भीलवाड़ा, शाहपुरा, चित्तौड़गढ़ काठेड़ी – सवाई माधोपुर
बागड़ी – डूंगरपुर, बाँसवाड़ा रांगड़ी – धौलपुर, भरतपुर
मालवी – कोटा, झालावाड़, प्रतापगढ़ ब्रज – भरतपुर, धौलपुर
ढूँढाड़ी – जयपुर, जयपुर ग्रामीण सोंदवाड़ी – झालावाड़
नागरचोल – टोंक, सवाई माधोपुर देवड़ावाटी – सिरोही
मेवाती – अलवर, भरतपुर, डीग, धौलपुर, दौसा, करौली धावड़ी – उदयपुर
राजावाटी – जयपुर ढाटी – बाड़मेर
किशनगढ़ी – अजमेर जगरौती – करौली

 

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